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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। अर्थ-संज्वलन क्रोध मान माया लोभका अपना २ पूर्व अपूर्वस्पर्द्धकरूप सब द्रव्यको अपकर्षण भागहारसे भाजितकर एकभागमात्रद्रव्य ग्रहणकर यथा क्रमसे उन क्रोधादिकोंकी कृष्टि करता है ॥ ४८९ ॥
उक्कट्टिददचस्स य पल्लासंखेजभागबहुभागो। बादरकिट्टिणिबद्धो फड्ढयगे सेसइगिभागो ॥ ४९० ॥
अपकर्षितद्रव्यस्य च पल्यासंख्येयभागबहुभागः ।
बादरकृष्टिनिबद्धः स्पर्धके शेषैकभागः॥ ४९० ॥ अर्थ-अपकर्षण किये द्रव्यको पल्यका असंख्यातवां भागसे भाजितकर बहुभागमात्र द्रव्य बादरकृष्टिका है और शेष एक भागमात्र द्रव्य पूर्व अपूर्व स्पर्धकोंमें निक्षेपण किया जाता है ॥ ४९० ॥
किट्टीयो इगिफड्ढयवग्गणसंखाणणंतभागो दु। एकेकम्हि कसाये तियंति अहवा अणंता वा ॥ ४९१ ॥
कृष्टय एकस्पर्धेकवर्गणासंख्यानामनंतभागस्तु ।
एकैकस्मिन् कषाये त्रिकत्रिकमथवा अनंता वा ॥ ४९१ ॥ अर्थ-एकस्पर्धकमें वर्गणाशलाकाके अनन्तवें भागमात्र सव कृष्टियोंका प्रमाण है । अनुभागके अल्पबहुत्वकी अपेक्षा एक एक कषायमें संग्रह कृष्टि तीन तीन हैं और एक एक संग्रह कृष्टिमें अन्तर कृष्टियां अनन्त अनन्त हैं ॥ ४९१॥
अकसायकसायाणं दधस्स विभंजणं जहा होई । किट्टिस्स तहेव हवे कोहो अकसायपडिबद्धं ॥ ४९२ ॥
अकषायकषायाणां द्रव्यस्य विभंजनं यथा भवति । __कृष्टस्तथैव भवेत् क्रोधो अकषायप्रतिबद्धः ॥ ४९२ ॥ अर्थ-नोकषाय और कषायोंके द्रव्यका विभाग जैसे होता है वैसे ही इनकी कृष्टियोंके प्रमाणका विभाग जानना । और नोकषायकी कृष्टियां क्रोधकी कृष्टियोंमें जोड़नी । क्योंकि नोकषायोंका सव द्रव्य संज्वलनक्रोधरूप संक्रमण हुआ है ॥ ४९२ ॥
पढमादिसंगहाओ पल्लासंखेजभागहीणाओ। कोहस्स तदीयाए अकसायाणं तु किट्टीओ ॥ ४९३ ॥
प्रथमादिसंग्रहाः पल्यासंख्येयभागहीनाः। ___ क्रोधस्य तृतीयायामकषायानां तु कृष्ट्यः ॥ ४९३ ॥ अर्थ-पूर्वरीतिसे प्रथम आदि बारह संग्रह कृष्टियोंका आयाम पल्यके असंख्यातवें