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लब्धिसारः।
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" अर्थ-अपूर्वस्पर्धक सहित अश्वकर्णकरणकालके अन्तसमयमें संज्वलनचारका आठ वर्षमात्र स्थितिबन्ध है । और शेषकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण है । इसके पहले समयमें अधिक था ॥ १८५॥
ठिदिसत्तमघादीणं असंखवस्साण होंति घादीणं । वस्साणं संखेजसहस्साणि हवंति णियमेण ॥ ४८६ ॥
स्थितिसत्त्वमघातिनामसंख्यवर्षा भवंति घातिनाम् । ..
वर्षाणां संख्येयसहस्राणि भवंति नियमेन ॥ ४८६ ॥ . अर्थ-उसी अन्तसमयमें अघातिया नाम गोत्र वेदनीयका स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षमात्र है पहले समयमें अधिक था । और चार घातियाकर्मोंका स्थिति सत्त्व संख्यातवर्षमात्र है ॥ ४८६ ॥ इस तरह अपूर्वस्पर्धकका अधिकार पूर्ण हुआ। आगे कृष्टिकरणमेंसे बादरकृष्टिकरणकालका प्रमाण कहते हैं
छक्कम्मे संछुद्धे कोहे कोहस्स वेदगद्धा जा। - तस्स य पढमतिभागो होदि हु हयकण्णकरणद्धा ॥ ४८७ ॥ विदियतिभागो किट्टीकरणद्धा किट्टिवेदगद्धा हु। तदियतिभागो किट्टीकरणो हयकण्णकरणं च ॥४८८॥
षट्कर्मणि संक्षुब्धे क्रोधे क्रोधस्य वेदकाद्धा या। - तस्य च प्रथमत्रिभागः भवति हि हयकर्णकरणाद्धा ॥ ४८७ ॥ द्वितीयत्रिभागः कृष्टिकरणाद्धा कृष्टिवेदकाद्धा हि । ..
. तृतीयत्रिभागः कृष्टिकरणं हयकर्णकरणं च ॥ ४८८ ॥ अर्थ-छह नोकषायोंको संज्वलनक्रोधमें संक्रमणकर अन्तर्मुहूर्तमात्र क्रोधवेदककाल है । उसमेंसे पहला त्रिभाग अर्श्वकर्णकरणका काल है, दूसरा त्रिभाग कुछ कम है वह चार संज्वलनकषायोंके कृष्टि करनेका काल है वह वर्त रहा है और तीसरा त्रिभाग कुछ कम है वह क्रोधकृष्टिका वेदककाल है सो आगे प्रवर्तेगा । इस कृष्टिकरणकालमें भी अश्वकर्णकरण पायाजाता है । क्योंकि यहां भी अश्वकरणके समान संज्वलनकषायोंका अनुभागसत्त्व वा अनुभागकांडक वर्तता है इसलिये यहां कृष्टिसहित अश्वकर्णकरण : पाया जाता है ऐसा जानना ॥ ४८७ ॥ ४८८ ॥
कोहादीणं सगसगपुवापुवगयफड्डयेहिंतो। उक्कडिदूण दचं ताणं किट्टी करेदि कमे ॥ ४८९ ॥ क्रोधादीनां स्वकस्वकपूर्वापूर्वगतस्पर्धकान् । अपकर्षयित्वा द्रव्यं तेषां कृष्टिः करोति क्रमेण ॥ ४८९ ॥.