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लब्धिसारः। रससत्त्वमागृहीतं खंडेन समं तु मानके क्रोधे।
मायायां लोभेपि च अधिकक्रमं भवति बंधेपि ॥ ४६१ ॥ अर्थ-प्रारंभ किये प्रथम अनुभागकांडककर सहित इस प्रथमअनुभाग कांडकके घात होनेसे पहले मानमें क्रोधमें मायामें लोभमें जो अनुभागसत्त्व है वह अधिक क्रमलिये हुए है । और इस अश्वकर्णके प्रारंभसमयमें जो अनुभागबन्ध है उसमें भी इसीतरह अल्प बहुत्वका क्रम जानना ॥ ४६१ ॥
रसखंडफड्ढयाओ कोहादीया हवंति अहियकमा । अवसेसफड्ढयाओ लोहादि अणंतगुणिदकमा ॥ ४६२ ॥ रसखंडस्पर्धकानि क्रोधादिकानां भवंति अधिकक्रमाणि ।
अवशेषस्पर्धकानि लोभादेः अनंतगुणितक्रमाणि ॥ ४६२ ॥ अर्थ-घात करनेके लिये प्रथम अनुभागकांडकरूप ग्रहण किये जो स्पर्धक वे क्रोधके थोड़े हैं उससे मानादिके विशेष अधिक हैं । और प्रथम अनुभागकांडकका घात हुए वाद अवशेष रहे स्पर्धक हैं वे लोभके थोड़े हैं उससे मायादिके अनंतगुणे हैं ऐसा क्रम जानना ॥ ४६२ ॥ अब अश्वकर्णके प्रथम समयमें हुए अपूर्वस्पर्धकोंका व्याख्यान करते हैं;
ताहे संजलणाणं देसावरफड्ढयस्स हेहादो। गंतगुणूणमपुचं फड्डयमिह कुणदि हु अणंतं ॥ ४६३ ॥
तस्मिन् संज्वलनानां देशावरस्पर्धकस्य अधस्तनात् ।
अनंतगुणोनमपूर्व स्पर्धकमिह करोति हि अनंतम् ॥ ४६३ ॥ अर्थ-उस अश्वकरणके आरंभसमयमें चारों संज्वलनकषायोंका एक साथ अपूर्वस्पर्धक देशघाती जघन्यस्पर्धकसे नीचे अनन्तगुणा घटता अनुभागरूप करता है । इस तरह अनन्ते अपूर्वस्पर्धक होते हैं ॥ ४६३ ॥
गणणादेयपदेसगगुणहाणिट्ठाणफड्ढयाणं तु। . होदि असंखेजदिम अवरादु वरं अणंतगुणं ॥ ४६४ ॥
गणनादेकप्रदेशकगुणहानिस्थानस्पर्धकानां तु । ... भवति असंख्येयं अवरतो वरमनंतगुणम् ॥ ४६४ ॥ अर्थ-गणनाकरके परमाणुओंकी गुणहानिके स्पर्धकोंका असंख्यातवां भाग अपूर्वस्पर्धकोंका प्रमाण है और जघन्य अपूर्वस्पर्धकोंसे उत्कृष्ट अपूर्वस्पर्धकमें अनुभागके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे होते हैं ॥ ४६४ ॥ इसका विशेषकथन कषायप्राभूत ( महाधवल) में कहा है।