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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
समऊणदोण्णि आवलिपमाणसमय प्पवद्धणवबंधो । विदिये दिये अस्थि हु पुरिसस्सुदयावली च तदा ॥ ४५८ ॥
समयोनद्व्यावलिप्रमाणसमयप्रबद्धनवबंधः ।
द्वितीयस्यां स्थितौ अस्ति हि पुरुषस्योदयावली च तदा ॥ ४५८ ॥
अर्थ - द्वितीय स्थिति में समय कम दो आवलिमात्र नवक समयप्रबद्ध मात्र उदयावलिके निषेक पुरुषवेद के सत्त्वमें शेष रहते हैं अन्य सब संख्यातहजार वर्षमात्र स्थिति लिये पुरुषवेदका पुराना सत्त्व संज्वलनकोध में संक्रमणरूप करदिया जाता है ॥ ४५८ ॥ अब अपगतवेद की क्रिया कहते हैं;
सेकाले ओणि अस्सकण्ण आदोलं ।
करणं तियसण्णगयं संजलणरसेसु वट्टिहिदि ॥ ४५९ ॥ स्वे काले अपवर्तनोद्वर्तनं अश्वकर्णमांदोलम् ।
करणं त्रिकसंज्ञागतं संज्वलनरसेषु वर्तयति ॥। ४५९ ।।
अर्थ-अपने कालमें अपवर्तनोद्वर्तकरण १ अश्वकरण २ आंदोलकरण - इसतरह नामोंको प्राप्त किया है वह संज्वलन चौकड़ीके अनुभाग में प्राप्त होती है ।। ४५९ ॥ आरंभ किये प्रथम अनुभाग कांडक के घात होनेपर शेष अनुभाग क्रोधसे लेकर लोभतक अनन्तगुणा घटता, व लोभसे लेकर क्रोधतक अनन्तगुणा वढता होता है उसे अपवर्तनोद्वर्तनकरण कहते हैं । जैसे घोड़ेका कान मध्यके प्रदेश से आदितक क्रमसे घटता होता है उसीतरह प्रथमअनुभागकांडकका घात हुए वाद क्रोध आदि लोभपर्यतका क्रमसे अनुभाग घटता होता है उसे अश्वकर्ण कहते हैं । जैसे हिंडोलेको रस्सी बन्धती है वह रस्सी के बीचका प्रदेश आदिसे अन्ततक क्रमसे घटता होता है उसीतरह पूर्ववत् क्रोध से लोभतकका अनुभाग घटता होता है उसे आंदोलकरण कहते हैं ।
ताहे संजलणाणं ठिदिसंतं संखबस्सयसहस्सं ।
अंतोमुहुत्तीणो सोलसवस्साणि ठिदिबंधो ॥ ४६० ॥ तत्र संज्वलनानां स्थितिसत्त्वं संख्यवर्षसहस्रम् । अंतर्मुहूर्तहीनः षोडशवर्षाणि स्थितिबंधः ॥ ४६० ॥
अर्थ — उस अश्वकर्णके प्रारंभसमय में संज्वलन चारका स्थितिसत्त्व संख्यातहजार वर्ष - मात्र है और स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम सोलह वर्षमात्र है ॥ ४६० ॥
रससंतं आगहिदं खंडेण समं तु माणगे कोहे ।
माया लोभवि य अहियकमा होति बंधेवि ॥ ४६१ ॥