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लब्धिसारः।
१२६ है । और अन्य नवीन अनुभागकांडकका प्रारंभ होजानेपर पहलेसे अनन्तगुणा घटता अनुभागका संक्रम होता है ॥ ४५३ ॥
सत्तण्हं संकामगचरिमे पुरिसस्स बंधमडवस्सं। सोलस संजलणाणं संखसहस्साणि सेसाणं ॥ ४५४ ॥ सप्तानां संक्रामकचरमे पुरुषस्य बंधोष्टवर्षम् ।
षोडश संज्वलनानां संख्यसहस्राणि शेषाणाम् ॥ ४५४ ॥ __ अर्थ—सात नोकषायोंके संक्रमणकालके अन्तसमयमें पुरुषवेदका स्थितिबन्ध आठ वर्षप्रमाण होता है और संज्वलनचौकड़ीका सोलह वर्षमात्र तथा शेष रहे मोह आयु विना छह कर्मोंका संख्यातहजार वर्षमात्र स्थितिबन्ध होता है ॥ ४५४ ॥
ठिदिसंतं घादीणं संखसहस्साणि होति वस्साणं । होति अघादितियाणं वस्साणमसंखमेत्ताणि ॥ ४५५॥ स्थितिसत्त्वं घातिनां संख्यसहस्राणि भवंति वर्षाणाम् ।
भवंति अघातित्रयाणां वर्षाणामसंख्यमात्राणि ॥ ४५५ ॥ अर्थ-वहांपर ही स्थितिसत्त्व चार घातियाओंका संख्यातहजार वर्षमात्र और तीन अघातियाओंका असंख्यातवर्षप्रमाण जानना ॥ ४५५ ॥
पुरिसस्स य पढमहिदि आवलिदोसुवरिदासु आगाला। पडिआगाला छिण्णा पडिआवलियादुदीरणदा ॥ ४५६ ॥
पुरुषस्य च प्रथमस्थितौ आवलिद्वयोरुपरतयोरागालाः। ....... ...
प्रत्यागालाः छिन्ना प्रत्यावलिकाया उदीरणता ॥ ४५६ ॥ अर्थ—पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिमें आवलि प्रत्यावलि दोनों शेष रहनेपर आगाल प्रत्यागाल नष्ट हो जाते हैं और द्वितीयावलिसे उदीरणा होती है ॥ ४५६ ॥ द्वितीयस्थितिमें स्थित परमाणुओंको अपकर्षण करके प्रथमस्थितिमें प्राप्त करना आगाल कहा जाता है। प्रथमस्थितिमें ठहरे हुए परमाणुओंको उत्कर्षणकर द्वितीयस्थितिमें प्राप्त करना प्रत्यागाल है।
अंतरकदपढमादो कोहे छण्णोकसाययं छुहदि । पुरिसस्स चरिमसमए पुरिसवि एणेण सवयं छुहदि ॥ ४५७ ॥ अंतरकृतप्रथमात् क्रोधे षण्णोकषायक संक्रामति ।
पुरुषस्य चरमसमये पुरुषमपि एतेन सर्व संक्रामति ॥ ४५७ ॥ अर्थ-अन्तरकरण करनेके वाद प्रथमसमयसे लेकर पुरुषवेदके उदयकालके अंतमें छह नोकषायोंका सबसत्त्व संज्वलनक्रोधमें संक्रमण करता है । और पुरुषवेदको भी सब संज्वलन क्रोधमें निक्षेपण करता है ॥ ४५७ ॥