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लब्धिसारः ।
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दि चारका दूसरे भागमें तीर्थकरादि तीस प्रकृतियोंका छठे भागके अन्तसमयसे लेकर निद्रा प्रचलारूप दोका बंध होता है । उसके वाद के समयमें उतरकर अप्रमत्तगुणस्थान में अधःकरण परिणामको प्राप्त होता है ॥ ३३९ ॥
पढमो अधापवत्तो गुणसेढिमवद्विदं पुराणादो । संखगुणं तच्चंतोमुहुत्तमेत्तं करेदी हु ॥ ३४० ॥ प्रथमो अधाप्रवृत्तः गुणश्रेणिमवस्थितां पुराणात् । संख्यगुणं तच्च अंतर्मुहूर्तमात्रं करोति हि ॥ ३४० ॥
अर्थ — उसके प्रथमसमय में उतरनेवाला अपूर्वकरणके अन्तसमय में जितना द्रव्य अपकर्षण किया था उससे असंख्यातगुणा कम द्रव्यको अपकर्षणकर गुणश्रेणी करता है । जिसका सूक्ष्मसांपरायके प्रथमसमयमें आरंभ हुआ था ऐसे पुराने गुणश्रेणी आयामसे संख्यातगुणा है तौभी इसका अवस्थित आयाम अन्तर्मुहूर्त जानना ॥ ३४० ॥ ओदरसुहुमादीदो अपुवचरिमोत्ति गलिदसे से व ।
गुणसेढी क्खेिवो साणे होदि तिट्ठाणं ॥ ३४१ ॥ अवतरसूक्ष्मादितो अपूर्वचरम इति गलितशेषो वा ।
गुणश्रेणी निक्षेपः स्वस्थाने भवति त्रिस्थानं ॥ ३४१ ॥
अर्थ - उतरनेवाले सूक्ष्मसांपरायके प्रथमसमयसे लेकर अपूर्वकरणके अन्तसमयतक ज्ञानावरणादिका गुणश्रेणी आयाम गलितावशेष है अवस्थित नहीं है । क्योंकि तीन स्थानोंमें बढकर अवस्थित गुणश्रेणी आयाम होता है ॥ ३४१ ॥
साणे तावदियं संखगुणूणं तु उवरि चडमाणे । विरदावरदाहिमु संखेजगुणं तदो तिविहं ॥ ३४२ ॥
स्वस्थाने तावत्कं संख्यगुणोनं तु उपरि चटमाने । विरताविरताभिमुखे संख्येयगुणं ततः त्रिविधं ॥ ३४२ ॥
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अर्थ- - स्वस्थान संयत होनेमें वृद्धि हानि रहित अवस्थित गुणश्रेणी आयाम करता है। वही जीव विरताविरतरूप पांचवें गुणस्थानके सन्मुख होवे तो संक्लेशताकर पूर्वगुणश्रेणी आयामसे संख्यातगुणा वढता गुणश्रेणी आयाम करता है । और पलटकर उपशम वा क्षपकश्रेणी चढनेके सन्मुख होवे - तो विशुद्धपनेकर उस गुणश्रेणी आयामसे संख्यातगुणा घटता गुणश्रेणी आयाम करता है । इसप्रकार स्वस्थानसंयमीके गुणश्रेणीकी वृद्धि हानि अवस्थित - रूप तीन स्थान कहे हैं ॥ ३४२ ॥
करणे अधापवत्ते अधापवत्तो दु संकमो जादो ! विज्झादमबंधाणे णट्टो गुणसंकमो तत्थ ॥ ३४३ ॥