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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । मोहस्य च स्थितिबंधः पल्ये जाते तदा तु परिवृद्धिः ।।
पल्यस्य संख्यभागं एकविकलासंज्ञिबंधसमम् ॥ ३३६ ॥ अर्थ-जब मोहका स्थितिबन्ध पल्यमात्र होजावे तव आगेके स्थितिबन्धमें वृद्धि होती है । एक एक स्थितिबन्धोत्सरणमें पल्यका संख्यातवां भागमात्र स्थिति बढती है । इसतरह प्रत्येक संख्यात हजार स्थितिबन्ध होके क्रमसे एकेंद्री दो इंद्री तेइंद्री चौइंद्री और असंज्ञी पञ्चेंद्रीके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होता है ॥ ३३६ ॥
मोहस्स पल्लबंधे तीसदुगे तत्तिपादमद्धं च । दुति चऊ सत्तभागा वीसतिये एयवियलठिदी ॥ ३३७ ।। मोहस्य पल्यबंधे त्रिंशद्विके तत्रिपादमधु च ।
द्वि त्रि चतुः सप्त भागा वीसत्रिके एकविकलस्थितिः ॥ ३३७ ॥ अर्थ-जब मोहका स्थितिबन्ध पल्यमात्र हुआ तब तीसियाओंका पल्यका तीन चौथाभागमात्र, वीसियाओंका आधापल्यमात्र स्थितिबन्ध होता है। जहां एकेंद्री समान बन्ध हुआ वहां मोहका सागरके चार सातभागमात्र, तीसियाओंका सागरके तीन सातवांभागमात्र वीसियाओंका सागरके दो सातवां भागमात्र स्थितिबन्ध जानना । और दो इंद्री तेइंद्री चौइंद्री असंज्ञी समान जहां स्थितिबन्ध हुआ वहां क्रमसे एकेंद्री समान बन्धसे पच्चीसगुणा पचासगुणा सौगुणा हजारगुणा जानना ॥ ३३७ ॥
तत्तो अणियहिस्स य अंतं पत्तो हु तत्थ उदधीणं । लक्खपुधत्तं बंधो से काले पुवकरणो हु॥ ३३८ ॥ तत अनिवृत्तेश्च अंतं प्राप्तो हि तत्र उदधीनाम् ।।
लक्ष्यपृथक्त्वं बंधः स्वे काले अपूर्वकरणो हि ॥ ३३८ ॥ अर्थ-उसके वाद असंज्ञीसमान बन्धसे परे संख्यातहजार स्थितिबन्धोत्सरण होनेपर उतरनेवाला अनिवृत्तिकरणके अन्तसमयको प्राप्त होता है । वहां मोह वीसिय तीसियोंका क्रमसे पृथक्त्वलक्षसागरोंका चार सातवां भाग, तीन सातवां भाग और दो सातवां भागमात्र स्थितिबन्ध होता है। उसके वादके समयमें उतरनेवाला अपूर्वकरण होता है ॥३३८॥
उवसामणा णिधत्ती णिकाचणुग्घाडिदाणि तत्थेव। चदुतीसदुगाणं च य बंधो अद्धापवत्तो य ॥ ३३९ ॥ उपशामना निधत्तिः निकाचना उद्घाटितानि तत्रैव ।
चतुर्विंशद्विकानां च च बंधो अधाप्रवृत्तं च ॥ ३३९ ॥ अर्थ-उसके प्रथमसमयसे लेकर अप्रशस्त उपशमकरण निधत्तिकरण और निकाचनकरण-इनको प्रगट करता है । और अपूर्वकरणकालके सातभागोंमेंसे पहले भागमें हास्या