Book Title: Labdhisara
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 126
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । आदिमकरणद्धाए पढमटिदिबंधदो दुचरिमम्हि । संखेजगुणविहीणो ठिदिबंधो होदि णियमेण ॥ ३९३ ॥ आद्यकरणाद्धायां प्रथमस्थितिबंधतस्तु चरमे । संख्येयगुणविहीनः स्थितिबंधो भवति नियमेन ॥ ३९३ ॥ ___ अर्थ-इसतरह स्थितिबन्धापसरण होनेसे पहले अधःप्रवृत्तकरण कालमें प्रथमसमयके स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा कम अन्तसमयमें स्थितिबन्ध नियमसे होता है ॥ ३९३ ॥ इसतरह इस अधःकरणमें आवश्यक होते हैं । जिस जगह अन्य जीवके नीचेके समयवर्ती भावोंके समान अन्यजीवके ऊपर समयवर्ती भाव हों वह अधःप्रवृत्तकरण ऐसा सार्थक नाम है जानना। आगे अपूर्वकरणका वर्णन करते हैं; गुणसेढी गुणसंकम ठिदिखंडमसत्थगाण रसखंडं । विदियकरणादिसमए अण्णं ठिदिवंधमारवई ॥ ३९४ ॥ गुणश्रेणी गुणसंक्रमं स्थितिखंडमशस्तकानां रसखंडम् । द्वितीयकरणादिसमये अन्यं स्थितिबंधमारभते ॥ ३९४ ॥ अर्थ-दूसरे अपूर्वकरणके पहलेसमयमें गुणश्रेणी गुणसंक्रम स्थितिखण्डन और अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभागखण्डन होता है । और अधःकरणके अन्तसमयमें जो स्थितिबंध होता था उससे पल्यका असंख्यातवां भाग घटता अन्य ही स्थितिबन्ध आरंभ करता है। इसलिये यहां एक स्थितिबन्धापसरण होनेसे इतना स्थितिबन्ध घटाते हैं ॥ ३९४ ॥ गुणसेढीदीहत्तं अपुवचउक्कादु साहियं होदि । गलिदवसेसे उदयावलिवाहिरदो दुणिक्खेओ ॥ ३९५ ॥ गुणश्रेणीदीर्घत्वं अपूर्वचतुष्कात् साधिकं भवति । गलितावशेषे उदयावलिबाह्यतस्तु निक्षेपः ॥ ३९५ ॥ अर्थ—यहांपर गुणश्रेणी आयामका प्रमाण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांपराय क्षीणकषाय-इन चार गुणस्थानोंके मिलाये हुए कालसे साधिक है । वह अधिकका प्रमाण क्षीणकषायके कालके संख्यातवें भागमात्र है । वह उदयावलिसे बाह्य गलितावशेषरूप गुणश्रेणी आयाममें अपकर्षण किये द्रव्यका निक्षेपण होता है ॥ ३९५॥ पडिसमयं उक्कट्टदि असंखगुणिदक्कमेण संचदि य । इदि गुणसेढीकरणं पडिसमयमपुवपढमादो ॥ ३९६ ॥ प्रतिसमयं अपकर्षति असंख्यगुणितक्रमेण संचिनोति च । इति गुणश्रेणीकरणं प्रतिसमयमपूर्वप्रथमात् ॥ ३९६ ॥

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