Book Title: Labdhisara
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 130
________________ ११४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ..... अनिवृत्तेश्च प्रथमे अन्य स्थितिखंडप्रभृतिमारभते । उपशामना निधत्तिः निकाचना तत्र व्युच्छिन्नाः ॥ ४०८॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें अन्य ही स्थितिखण्डादिक प्रारंभ किये जाते हैं, उस घातके वाद शेष रहे अनुभागका अनंत बहुभागमात्र अन्य ही अनुभागकांडक होता है और अपूर्वकरणके अंतसमयके स्थितिबन्धसे पल्यका संख्यातवां भागमात्र घटता अन्य ही स्थितिबन्ध होता है । यहांपर ही अप्रशस्त उपशम निधत्ति निकाचना इन तीन करणोंकी व्युच्छित्ति होती है। सब ही कर्म उदय संक्रमण उत्कर्षण अपकर्षण करने योग्य होते हैं ।। ४०८ ॥ बादरपढमे पढमं ठिदिखंडं विसरिसं तु विदियादि । ठिदिखंडयं समाणं सबस्स समाणकालम्हि ॥ ४०९॥ बादरप्रथमे प्रथमं स्थितिखंडं विसदृशं तु द्वितीयादि । स्थितिखंडकं समानं सर्वस्य समानकाले ॥ ४०९ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें पहला स्थितिखंड विसदृश है और द्वितीयादिस्थितिखंड हैं वे समानकालमें सब जीवोंके समान हैं अर्थात् जिनको अनिवृत्तिकरण आरंभकिये समान काल हुआ उनके परस्पर द्वितीयादि स्थितिकांडक आयामका समान प्रमाण जानना ॥ ४०९॥ पल्लस्स संखभागं अवरं तु वरं तु संखभागहियं । घादादिमठिदिखंडो सेसा सवस्स सरिसा हु॥ ४१०॥ पल्यस्य संख्यभागं अवरं तु वरं तु संखभागाधिकम् । घातादिमस्थितिखंडः शेषाः सर्वस्य सदृशा हि ॥ ४१० ॥ अर्थ-वह घातके पहले तक प्रथमस्थितिखंड जघन्य तो पल्यका संख्यातवां भागमात्र है और उत्कृष्ट उसके संख्यातवें भागकर अधिक है । तथा शेष द्वितीयादि स्थितिखंड सब जीवोंके समान है ॥ ४१०॥ उदधिसहस्सपुधत्तं लक्खपुधत्तं तु बंध संतो य । अणियट्टीसादीए गुणसेढीपुवपरिसेसा ॥ ४११॥ उदधिसहस्रपृथक्त्वं लक्ष्यपृथक्त्वं तु बंधः सत्त्वं च । अनिवृत्तेरादौ गुणश्रेणीपूर्वपरिशेषाः ॥ ४११ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें घटता घटता स्थितिबन्ध पृथक्त्वहजारसागरप्र. माण होता है, स्थितिसत्त्व घटता घटता पृथक्त्वलक्ष्य सागर प्रमाण होता है और गुणश्रेणी आयाम यहाँपर अपूर्वकरण कालके वीतनेके वाद शेष रहा वही जानना । समय समय

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