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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ' अर्थ-जो प्रकृतियोंके परमाणू अपकर्षण किये जाते हैं वे अपने कालमें भजनीय हैं। स्थित्यादिकी वृद्धि अवस्थान हानि संक्रमण और उदय इनरूप होवें भी और नहीं भी हों कुछ नियम नहीं है ॥ ४०० ॥
एकं च ठिदिविसेसं तु असंखेजेसु ठिदिविसेसेसु । वहेदि रहस्सेदि व तहाणुभागेसुर्णतेसु ॥४०१ ॥
एकं च स्थितिविशेषं तु असंख्येयेषु स्थितिविशेषेषु ।
वय॑ते रहस्यते वा तथानुभागेष्वनंतेषु ॥ ४०१ ॥ अर्थ-एक स्थितिविशेष जो एक निषेकका द्रव्य वह असंख्यात निषेकोंमें निक्षेपण किया जाता है । उसीतरह अनंत अनुभागोंमें भी एक स्पर्धकका द्रव्य अनंत स्पर्धकोंमें निक्षेपण किया जाता है ऐसा जानना ॥ ४०१ ॥ इस तरह गुणसंक्रमणका खरूप कहा ।
पल्लस्स संखभागं वरं पि अवरादु संखगुणिदं तु। पढमे अपुविखवगे ठिदिखंडपमाणयं होदि ॥ ४०२॥ पल्यस्य संख्यभागं वरमपि अवरात् संख्यगुणितं तु।
प्रथमे अपूर्वक्षपके स्थितिखंडप्रमाणकं भवति ॥ ४०२ ॥ अर्थ-क्षपक अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें स्थितिकांडक आयामका जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाण पत्यके संख्यातवें भागमात्र है तो भी जघन्यसे उत्कृष्ट संख्यातगुणा है ॥ ४०२॥
आउगवजाणं ठिदिघादो पढमादु चरिमठिदिसंतो। ठिदिबंधो य अपुवे होदि हु संखेजगुणहीणो ॥ ४०३ ॥
आयुष्कवानां स्थितिघातः प्रथमात् चरमस्थितिसत्त्वम् ।
स्थितिबंधश्च अपूर्वे भवति हि संख्येयगुणहीनः ॥ ४०३ ॥ अर्थ-आयुके विना सातकर्मोंका स्थितिकांडक आयाम स्थितिसत्त्व और स्थितिबंध-ये तीनों अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें जो पाये जाते हैं उनसे उसके अंतसमयमें संख्यातगुणे कम होते हैं ॥ ४०३ ॥
अंतोकोडाकोडी अपुचपढमम्हि होदि ठिदिबंधो। बंधादो पुण सत्तं संखेजगुणं हवे तत्थ ॥ ४०४॥
अंतःकोटीकोटिः अपूर्वप्रथमे भवति स्थितिबंधः ।
बंधात् पुनः सत्त्वं संख्येयगुणं भवेत् तत्र ॥ ४०४ ॥ अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें स्थितिबंध अंतःकोड़ाकोड़ी प्रमाण है वह पृथक्त्व