Book Title: Labdhisara
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 134
________________ ११८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ही संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर असंज्ञी पंचेंद्रिीके समान स्थितिसत्त्व होता है । और उसके वाद वैसे ही स्थितिसत्त्वका होना क्रमसे जानना ॥ ४२४ ॥ ती बंधहस्से पलासंखेज्जयं तु ठिदिबंधे । तत्थ असंखेज्जाणं उदीरणा समयबद्धाणं ॥ ४२५ ॥ अतीते बंधसहस्रे पल्यासंख्येयकं तु स्थितिबंधे । तत्र असंख्येयानां उदीरणा समयबद्धानाम् ।। ४२५ ।। अर्थ —- इस क्रमकरण से परे संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीतनेपर पल्यका असंख्यातवां भागमात्र स्थितिबन्ध होते हुए असंख्यात समय प्रबद्धोंकी उदीरणा होती है ॥ ४२५ ॥ आगे क्षपणाका खरूप कहते हैं; - ठिदिबंध सह सदे अकसायाण होदि संकमगो । ठिदिखंडपुधत्तेण य तट्ठिदिसंतं तु आवलियविद्धं ॥ ४२६ ॥ स्थितिबंधसहस्रगते अष्टकषायानां भवति संक्रामक: । स्थितिखंड पृथक्त्वेन च तत्स्थितिसत्त्वं तु आवलिकविद्धं ।। ४२६ ॥ अर्थ — उसके वाद संख्यातहजार स्थितिकांडक वीतनेपर अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान • क्रोध मान माया लोभरूप आठ कषायोंका संक्रामक होता है । इसतरह मोहराजाकी सेनाके नायक आठ कषायों का नाश होनेपर शेष स्थितिसत्त्व काल अपेक्षा आवलिमात्र रहता है और निषेकोंकी अपेक्षा समयकम आवलीमात्र रहता है ॥ ४२६ ॥ ठिदिबंधपुधत्तगदे सोलसपयडीण होदि संकमगो । ठिदिखंडपुधत्तेण य तट्ठिदिसंतं तु आवलिपविद्धं ॥ ४२७ ॥ स्थितिबंधपृथक्त्वगते षोडशप्रकृतीनां भवति संक्रामक: । स्थितिखंडपृथक्त्वेन च तत्स्थितिसत्त्वं तु आवलिप्रविष्टम् ॥ ४२७ ॥ अर्थ — उसके बाद पृथक्त्व यानी संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीतनेपर निद्रा निद्रा आदि तीन दर्शनावरणकी नरकगति आदि तेरह नामकर्मकी - इस तरह सोलह प्रकृतियों का संक्रामक होता है । इस तरह संख्यातहजार स्थितिखण्डोंसे उनकर्मोंका स्थितिसत्त्व आबलिमात्र रहता है || ४२७ ॥ आगे देशघातिकरणको कहते हैं; - ठिदिबंधपुधत्तगदे मगदाणा तत्तियेवि ओहि दुगं । लाभं च पुणोवि सुदं अचक्खभोगं पुणो चक्खु ॥ ४२८ ॥ पुणरवि मदिपरिभोगं पुणरवि विश्यं कमेण अणुभागो । बंधे देसघादी पल्लासंखं तु ठिदिबंधो ॥ ४२९ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192