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लब्धिसारः।
१११ अर्थ-प्रथमसमयमें अपकर्षण किये द्रव्यसे द्वितीयादि समयोंमें असंख्यातगुणा क्रमलिये समय समय प्रति द्रव्यको अपकर्षण करता है । और उदयावलिमें गुणश्रेणी आयाममें ऊपरकी स्थितिमें निक्षेपण करता है । इसतरह अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर समय समय प्रति गुणश्रेणीका करना है । यह गुणश्रेणीका खरूप कहा ॥ ३९६ ॥
पडिसमयमसंखगुणं दवं संकमदि अप्पसत्थाणं । बंधुज्झियपयडीणं बंधंतसजादिपयडीसु ॥ ३९७ ॥
प्रतिसमयमसंख्यगुणं द्रव्यं संक्रामति अप्रशस्तानाम् ।
बंधोज्झितप्रकृतीनां वध्यमानस्वजातिप्रकृतिषु ।। ३९७ ॥ अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर जिनका यहां बन्ध नहीं पाया जाता ऐसी अप्रशस्तप्रकृतियों का गुणसंक्रमण होता है वह समय समय प्रति असंख्यातगुणा क्रमलिये उन प्रकृतियोंका द्रव्य है वह बंध होनेवाली खजातिप्रकृतियोंमें संक्रमण करता है उसरूप परिणमता है । जैसे असातावेदनीका द्रव्य सातावेदनीयरूप होके परिणमता है । इसीतरह अन्य प्रकृतियोंका भी जानना ॥ ३९७ ॥
उवट्टणा जहण्णा आवलियाऊणिया तिभागेण । एसा ठिदिसु जहण्णा तहाणुभागे सणंतेसु ॥ ३९८॥
अतिस्थापना जघन्या आवलिकोनिका त्रिभागेन ।
एषा स्थितिषु जघन्या तथानुभागेष्वनंतेषु ॥ ३९८ ॥ अर्थ-संक्रमणमें जघन्य अतिस्थापन अपने विभागकर कमती आवलिमात्र है यही जघन्य स्थिति है । उसीतरह अनन्त अनुभागोंमें भी जानना ॥ ३९८ ॥
संकामे दुकट्टदि जे असे ते अवहिदा होति ।। आवलियं से काले तेण परं होंति भजियव ॥ ३९९॥ संक्रामे तु उत्कृष्यंते ये अंशास्ते अवस्थिता भवंति ।
आवलिका स्वे काले तेन परं भवंति भजितव्याः ॥ ३९९ ॥ अर्थ-संक्रमणमें जो प्रकृतियों के परमाणू उत्कर्षणरूप किये जाते हैं वे अपने कालमें आवलिपर्यंत तो अवस्थित ही रहते हैं उससे परे भजनीय हैं अर्थात् अवस्थित भी. रहते हैं और स्थिति आदिकी वृद्धि हानिआदिरूप भी रहते हैं ॥ ३९९ ॥
उकट्टदि जे अंसे से काले ते च होंति भजियवा। वडीए अवठ्ठाणे हाणीए संकमे उदए ॥ ४००॥
उत्कृष्यंते ये अंशाःस्वे काले ते च भवंति भजितव्याः । वृद्धौ अवस्थाने हानौ संक्रमे उदये ॥ ४०॥