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लब्धिसारः।
१०९ आगे चारित्र मोहकी क्षपणाके सन्मुख हुआ पहले अधःप्रवृत्तकरण करता है उसे कहते हैं;
गुणसेढी गुणसंकम ठिदिरसखंडाण णत्थि पढमम्हि । पडिसमयमणंतगुणं विसोहिवड्डीहिं वहदि हु॥ ३९॥ गुणश्रेणी गुणसंक्रमं स्थितिरसखंडनं नास्ति प्रथमे ।
प्रतिसमयमनंतगुणं विशुद्धिवृद्धिभिः वर्धते हि ॥ ३९० ॥ अर्थ-पहले अधःप्रवृत्तकरणमें गुणश्रेणी गुणसंक्रम स्थितिकांडकघात अनुभागकांडकघात—ये नहीं हैं । इसलिये वह जीव हर समय अनन्तगुणा क्रमलिये विशुद्धपनेकी वृद्धिकर वढता है ॥ ३९० ॥
सत्थाणमसत्थाणं चउविट्ठाणं रसं च बंधदि हु। पडिसमयमणंतेण य गुणभजियकमं तु रसबंधे ॥ ३९१ ॥
शस्तानामशस्तानां चतुरपि स्थानं रसं च बध्नाति हि ।
प्रतिसमयमनंतेन च गुणभजितक्रमं तु रसबंधे ॥ ३९१ ॥ अर्थ-वोही जीव हरसमय प्रशस्त प्रकृतियोंका अनन्तगुणा क्रमलिये चार स्थानिक अनुभागबन्ध करता है और अप्रशस्तप्रकृतियोंका अनन्तवां भागका क्रमलिये द्विस्थानिक अनुभागबन्ध करता है ॥ ३९१ ॥
पल्लस्स संखभागं मुहुत्तअंतेण ओसरदि बंधे। संखेजसहस्साणि य अधापवत्तम्हि ओसरणा ॥ ३९२ ॥
पल्यस्य संख्यभागं मुहूर्तान्तरपसरति बंधे ।
संख्येयसहस्राणि च अधःप्रवृत्ते अपसरणानि ॥ ३९२ ॥ अर्थ-पूर्वस्थितिबन्धसे पल्यका संख्यातवां भागमात्र स्थितिबन्ध घटाके एक अन्तर्मुहूर्तकालतक समयसमय समान बंध होवे वह एक स्थितिबन्धापसरण है। ऐसे संख्यातहजार स्थितिबन्धापसरण अधःप्रवृत्तकरणमें होते हैं ॥ ३९२ ॥
१. "कसायखवणो ठाणे परिणामो केरिसो हवे। कसाय उवजोगो को लेस्सा वेदो य को हवे॥" "काणि वा पुव्वबन्धाणि के वा अंसेण बंधदि । कदियावलि पविसंति कदिण्हं वा पवेसगो ॥" "केदिये सेज्झीयदे पुव्वं बन्धेण उदयेण वा । अंतरं वा कहिं किच्चा के के संकामगो कहिं ॥" "केहिदीयाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । उक्कट्टिदूण सेसाणि कं ठाणं पडिवज्जदि ॥” इन चार सूत्रोंकर अधःप्रवृत्त. करणके विशेषजाननेके प्रश्न किये गये हैं उनका उत्तर बड़ी भाषामें दिखलाया है। ये चार श्लोक दूसरे ग्रन्थमेंके मालूम होते हैं।