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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। : करणे अधःप्रवृत्ते अधःप्रवृत्तस्तु संक्रमो जातः ।
विध्यातमबंधने नष्टो गुणसंक्रमस्तत्र ॥ ३४३ ॥ अर्थ-उतरनेवाले अधःप्रवृत्तकरणमें जिन प्रकृतियोंका बंध पायाजाता है उनका तो अधःप्रवृत्त संक्रम होगया और जिनका बन्ध नहीं पायाजावे उनके विध्यात संक्रम होता है । गुणसंक्रमका नाश ही होजाता है ॥ ३४३ ॥
चडणोदरकालादो पुवादो पुवगोत्ति संखगुणं । कालं अधापवत्तं पालदि सो उवसमं सम्मं ॥ ३४४ ॥
चटनावतरकालतो अपूर्वात् अपूर्वक इति संख्यगुणं।
कालं अधःप्रवृत्तं पालयति स उपशमं सम्यम् ॥ ३४४ ॥ अर्थ-द्वितीयोपशम सम्यक्त्वसहित जीव चढते अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर उत. रते अपूर्वकरणके अन्तसमयतक जितना काल हुआ उससे संख्यातगुणा ऐसा अन्तर्मुहूर्तमात्र द्वितीयोपशमसम्यक्त्वका काल है इसकालतक अधःप्रवृत्त करण सहित इस द्वितीयो. पशम सम्यक्त्वको पालता है ॥ ३४४ ॥
तस्सम्मत्तद्धाए असंजमं देससंजमं वापि । गच्छेजावलिछक्के सेसे सासणगुणं वापि ॥ ३४५ ॥ तत्सम्यक्त्वाद्धायां असंयमं देशसंयमं वापि ।
गत्वावलिषदे शेषे सासनगुणं वापि ॥ ३४५ ॥ .. अर्थ-उसी द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके कालमें अधःप्रवृत्तकरण कालको समाप्त कर अप्रत्याख्यानके उदयसे असंयमको प्राप्त होता है, अथवा प्रत्याख्यानके उदयसे देशसंयत गुणस्थानको प्राप्त होता है अथवा वहां असंयतकालके छह आवलि शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी क्रोधादिमें किसी एकके उदयसे सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त होता है ॥३४५॥
जदि मरदि सासणो सो णिरयतिरक्खं णरं ण गच्छेदि । णियमा देवं गच्छदि जइवसहमुणिंदवयणेण ॥ ३४६ ॥
यदि म्रियते सासनः स निरयतिर्यञ्चं नरं न गच्छति । .. नियमात् देवं गच्छति यतिवृषभमुनींद्रवचनेन ॥ ३४६ ॥
अर्थ-उपशमश्रेणीसे उतरा वह सासादन जीव जो आयुनाश होनेसे मरे तो नारकतिर्यंच और मनुष्यगतिको नहीं प्राप्त होता लेकिन देवगतिमें नियमसे जाता है ऐसा कषाय प्राभृतनामा दूसरे महाधवलशास्त्रमें यतिवृषभनामा आचार्य ने कहा है ॥ ३४६ ॥
णरयतिरिक्खणराउगसत्तो सक्को ण मोहमुवसमिदं । तम्हा तिसुवि गदीसु ण तस्स उप्पजणं होदि ॥ ३४७ ॥