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लब्धिसारः ।
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अर्थ- - अन्तर करनेके वाद प्रथमसमय में सातकरणोंका एककालमें आरंभ होता है । वहां पहले अन्तरकरनेकी समाप्तितक मोहका दारुलतासमान दोस्थानगतबंध और उदय था वह अब लतासमान एकस्थानगत बन्ध उदय होनेलगा । ऐसे दो करण हुए । पहले मोहका स्थितिबन्ध असंख्यातवर्षका होता था अब संख्यातवर्षका ही होने लगा, पहले चारित्रमोहका परस्पर प्रकृतियोंका जिस तिस जगह संक्रमण होता था अब आनुपूर्वी संक्र मण होने लगा, पहले संज्वलन लोभका संज्वलन क्रोधादिमें संक्रमण होता था अब इसका कहीं भी संक्रमण नहीं होता, अब नपुंसकवेदकी उपशमक्रियाका प्रारंभ हुआ, पहले बन्ध होनेके बाद एक आवलिकाल वीतजानेपर उदीरणा करनेकी सामर्थ्य थी अब जिसका बंध होता है उसकी बंधसमयसे छह आवलि बीत जानेपर उदीरणा करनेकी सामर्थ्य होती है । २४६ । २४७ ॥
अंतरपढमादु कमे एक्केकं सत्त चदुसु तिय पयडिं ।
सममुच सामदि णवकं समऊणावलिदुगं वज्जं ॥ २४८ ॥ अंतरप्रथमात् क्रमेण एकैकं सप्त चतुर्षु त्रयं प्रकृतिं ।
समुच्य शमयति नवकं समयोनावलिद्विकं वर्ज्यम् ॥ २४८ ॥
अर्थ—अन्तरकरनेके वाद प्रथमसमयसे लेकर क्रमसे एक एक अन्तर्मुहूर्तकालकर तो एक एक सात प्रकृतियोंको और चार अन्तर्मुहूर्तमें क्रमसे तीन तीन तीन तीन प्रकृतियोंको उपशमाता है | वहां समयकम दो आवलिमात्र नवक समयप्रबद्धको नहीं उपशमाता ॥ २४८ ॥
एय णउंसयवेदं इत्थीवेदं तहेव एयं च ।
सत्तेव णोकसाया कोहादितियं तु पयडीओ ॥ २४९ ॥ एकं नपुंसकवेदं स्त्रीवेदं तथैव एकं च ।
सप्तैव नोकषायाः क्रोधादित्रयं तु प्रकृतयः ॥ २४९ ॥
अर्थ – एक नपुंसक वेद एक स्त्रीवेद उसीतरह सात नोकषाय और तीन क्रोध तीन मान तीन माया तीन लोभ ऐसे क्रमसे उपशम होनेपर इक्कीस प्रकृतियां हैं ॥ २४९ ॥
अंतरकद पढमादो पडिसमयमसंखगुणविहाणकमे ।
वसामेदि हुड उवसंतं जाण णव अण्णं ॥ २५० ॥ अंतरकृतप्रथमतः प्रतिसमयमसंख्यगुणविधानक्रमे ।
गोपशाम्यति हि षंढं उपशांतं जानीहि नवान्यम् ॥ २५० ॥
अर्थ — अन्तरकर ने वाद प्रथमसमय से लेकर समय २ प्रति नपुंसक वेदका उपशम