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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । जिनका केवल बंध ही पाया जाता है ऐसी प्रकृतियोंके द्रव्यको उत्कर्षणकर तत्काल अपनी बन्धी हुई प्रकृतिकी आबाधाको छोड़कर उसीकी द्वितीय स्थितिके प्रथमनिषेकसे लेकर यथायोग्य अन्ततक निक्षेपण करता है । और अपकर्षणकर उदयरूप अन्यकषायकी प्रथमस्थितिमें निक्षेपण करता है ॥ २४३॥
उदयिल्लाणंतरजं सगपढमे देदि बंधविदिये च । उभयाणंतरदचं पढमे विदिये च संछुहदि ॥ २४४ ॥
औदयिकानामंतरजं स्वकप्रथमे ददाति बंधद्वितीये च ।।
उभयानामंतरद्रव्यं प्रथमे द्वितीये च संक्षिपति ॥ २४४ ॥ अर्थ-जिनका केवल उदय ही पाया जावे ऐसे स्त्रीवेद वा नपुंसकवेदके अन्तरके द्रव्यको अपकर्षणकर अपनी अपनी प्रथम स्थितिमें निक्षेपण करता है और उत्कर्षणकर उस जगह बन्धे हुए अन्यकषायोंकी द्वितीयस्थितिमें निक्षेपण करता है । और जिनके बन्ध उदय दोनों ही पाये जाते हैं ऐसे पुरुषवेद वा कोई एक कषाय उनके अन्तरके द्रव्यको अपकर्षणकर उदयरूप प्रकृतिकी प्रथमस्थितिमें निक्षेपण करता है और उत्कर्षण कर वहां बंधवाली प्रकृतियोंकी द्वितीयस्थितिमें निक्षेपण करता है ॥ २४४ ॥
अणुभयगाणंतरजं बंध ताणं च विदियगे देदि । एवं अंतरकरणं सिज्झदि अंतोमुहुत्तेण ॥ २४५ ॥
अनुभयकानामंतरजं बंधं तेषां च द्वितीयके ददाति ।
एवमंतरकरणं सिद्ध्यति अंतर्मुहूर्तेण ॥ २४५ ॥ अर्थ-बंध उदय रहित जो अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानकषाय और हास्यादि छह नोकषाय इनके अन्तरके द्रव्यको उत्कर्षणकर उस कालमें बंधी अन्यप्रकृतियोंकी द्वितीयस्थितिमें निक्षेपण करता है और अपकर्षणकर उदयरूप अन्यप्रकृतियोंकी प्रथमस्थितिमें देता है ॥ २४५॥
सत्तकरणाणि यंतरकदपढमे होंति मोहणीयस्स । इगिठाणिय बंधुदओ ठिदिबंधे संखवस्सं च ॥ २४६ ॥ अणुपुचीसंकमणं लोहस्स असंकमं च संढस्स । पढमोवसामकरणं छावलितीदेसुदीरणदा ॥ २४७ ॥
सप्तकरणानि अंतरकृतप्रथमे भवंति मोहनीयस्य । एकस्थानको बंधोदयः स्थितिबंधः संख्यवर्ष च ॥ २४६ ॥ आनुपूर्वीसंक्रमणं लोभस्यासंक्रमं च षंढस्य । प्रथमोपशमकरणं षडावल्यतीतेषूदीरणता ॥ २४७॥ . ..