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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् । द्वितीयार्धे परिशेषे समयोनावलित्रिकेषु लोभद्विकम् ।
स्वस्थाने उपशाम्यति हि न ददाति संज्वलनलोभे ॥ २९१ ॥ अर्थ-संज्वलनलोभकी प्रथमस्थितिके द्वितीयार्धमें समयकम तीन आवलि शेष रहनेपर अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानलोभ अपने खरूपमें ही रहते हुए उपशम होते हैं लेकिन संज्वलनलोभमें संक्रमण नहीं करते ॥ २९१ ॥
बादरलोभादिठिदी आवलिसेसे तिलोहमुवसंतं । णवकं किट्टि मुच्चा सो चरिमो थूलसंपराओ य ॥ २९२ ॥
बादरलोभादिस्थितौ आवलिशेषे त्रिलोभमुपशांतम् ।।
___ नवकं कृष्टिं मुक्त्वा स चरमः स्थूलसांपरायो यः ॥ २९२ ॥ अर्थ-बादरलोभकी प्रथमस्थितिमें उच्छिष्टावली शेष रहनेपर उपशमनावलीके अन्तसमयमें तीनों लोभका द्रव्य उपशम होता है लेकिन सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त हुआ द्रव्य और एकसमय कम दो आवलिमात्र नवीनसमयप्रबद्धोंका द्रव्य तथा उच्छिष्टावलिमात्र निषेकोंका द्रव्य उपशमरूप नहीं होता । इसप्रकार कृष्टिकरणकालके अन्तसमयवर्तीको अन्तिम अनिवृत्तबादरसांपराय कहते हैं ॥ २९२ ॥ इसप्रकार अनिवृत्तकरणका स्वरूप कहा ।
से काले किट्टिस्स य पढमहिदिकारवेदगो होदि । लोहगपढमठिदीदो अद्धं किंचूणयं गत्थ ॥ २९३॥
स्वे काले कृष्टेश्च प्रथमस्थितिकारवेदको भवति ।
लोभगप्रथमस्थितितो अर्ध किंचिदूनकं गत्वा ॥ २९३ ॥ अर्थ-बादरलोभकी प्रथमस्थितिके द्वितीय अर्धसे कुछ कम सूक्ष्मकृष्टियोंकी प्रथमस्थिति करता है । और उसी सूक्ष्मसांपरायके प्रथमसमयमें सूक्ष्मकृष्टिके उदयका कर्ता और भोगता है ॥ २९३ ॥
पढमे चरिमे समये कदकिट्टीणग्गदो दु आदीदो। मुच्चा असंखभागं उदेदि सुहुमादिमे सवे ॥ २९४ ॥ प्रथम चरमे समये कृतकृष्टीनामग्रतस्तु आदितः ।
मुक्त्वा असंख्यभागं उदेति सूक्ष्मादिमे सर्वे ॥ २९४ ॥ अर्थ-सूक्ष्मकृष्टि करनेके कालके प्रथमसमयमें अन्तसमयमेंकी हुई कृष्टियोंका असंख्यातवां एकभाग अपने खरूपकर उदय नहीं होता । अन्य कृष्टिरूप परिणमनकर उदय होती है । और शेष बहुभाग तथा द्वितीयादि द्विचरम समयोंमें की हुई सब कृष्टियें अपने खरूपकर ही उदय होती हैं ॥ २९४ ॥