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- लब्धिसारः।
. ९१ अर्थ-तीन घातियाओंका पत्यके असंख्यातवें भागमात्र, इससे असंख्यातगुणा नामगोत्रका, उससे ड्योढा वेदनीयका और मोहका संख्यात हजार वर्षमात्र स्थितिबन्ध होता है। उसी अवसरमें चार ज्ञानावरण तीन दर्शनावरण और पांच अन्तराय-इन देशघातियाओंका लता और दारु समान दो स्थानगत अनुभागबंध होता है ॥ ३२५ ॥
संढणुवसमे पढमे मोहिगिवीसाण होदि गुणसेढी। अंतरकदोति मज्झे संखाभागासु तीदासु ॥ ३२६ ॥ षंढानुपशमे प्रथमे मोहैकविंशानां भवति गुणश्रेणी।
अंतरकृत इति मध्ये संख्यभागेष्वतीतेषु ॥ ३२६ ॥ अर्थ-नपुंसकवेदका उपशम नष्ट होनेपर उसके प्रथमसमयमें नपुंसकवेद और पहली वीस-इसतरह मोहकी इक्कीस प्रकृतियोंकी गुणश्रेणी होती है। और अन्तरकरण करे उसके बीचमें अन्तर्मुहूर्तकाल है उसके संख्यात बहुभाग वीतनेपर ॥ ३२६ ॥
मोहस्स असंखेजा वस्सपमाणा हवेज ठिदिबंधो। ताहे तस्स य जादं बंधं उदयं च दुट्ठाणं ॥ ३२७ ॥ मोहस्य असंख्येयानि वर्षप्रमाणानि भवेत् स्थितिबंधः ।
तस्मिन् तस्य च जातो बंध उदयश्च द्विस्थानम् ॥ ३२७ ॥ अर्थ-मोहनीयका असंख्यातवर्ष, तीन घातियाओंका उससे असंख्यातगुणा, नामगोत्रका उससे असंख्यातगुणा और वेदनीयका उससे अधिक स्थितिबन्ध होता है । उसी अवसरमें मोहनीयके लता दारुरूप दो स्थानगत बन्ध और उदय होते हैं ॥ ३२७ ॥ . .
लोहस्स असंकमणं छावलितीदेसु दीरणत्तं च । णियमेण पडताणं मोहस्सणुपुविसंकमणं ॥ ३२८ ॥
लोभस्य असंक्रमणं षडावल्यतीतेषूदीरणत्वं च ।
'नियमेन पततां मोहस्यानुपूर्विसंक्रमणम् ॥ ३२८ ॥ अर्थ-उतरनेवालेके सूक्ष्मसांपरायके प्रथमसमयसे लेकर जो कर्मबन्धे हुए थे उनकी छह आवलि वीत जानेपर उदीरणा होनेका नियम था उसको छोड़ अब बन्धावली बीत जानेपर ही उदीरणा की जाती है । और उतरनेवाले के मोहकी सब प्रकृतियोंका आनुपूवीसंक्रमका नियम था वह नष्ट हुआ ॥ ३२८ ॥
विवरीयं पडिहण्णदि विरयादीणं च देसघादित्तं । तह य असंखेजाणं उदीरणा समयपबद्धाणं ॥ ३२९ ॥ विपरीतं प्रतिहन्यते वीर्यादीनां च देशघातित्वम् । तथा च असंख्येयानामुदीरणा समयप्रबद्धानाम् ॥ ३२९॥