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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । पुरुषात् लोभगतं नवकं समयोने द्वे आवलिके ।
उपशाम्यति हि क्रोधादिकृष्ट्यंतेषु स्थानेषु ॥ २९९ ॥ अर्थ-पुरुषवेद आदि लोभ पर्यंततकका एकसमय कम दो आवलिमात्र नवक समयप्रबद्धोंका द्रव्य है वह क्रोधादिकृष्टितकके प्रथम स्थितिके कालोंमें समयसमय असंख्यातगुणा क्रमलिये उपशम होता है ॥ २९९ ॥ इसप्रकार सूक्ष्मसांपरायके अन्तसमयमें सब कृष्टि द्रव्यको उपशमाके वादके समयमें उपशांतकषाय होता है ।
उपसंतपढमसमये उवसंतं सयलमोहणीयं तु । मोहस्सुदयाभावा सवत्थ समाणपरिणामो ॥ ३०॥
उपशांतप्रथमसमये उपशांतं सकलमोहनीयं तु ।
मोहस्योदयाभावात् सर्वत्र समानपरिणामः ॥ ३०० ॥ अर्थ-उपशांतकषायके पहले समयमें सकलचारित्रमोहनीयकर्म बंधादिक अवस्थाओं के न होनेसे सब तरह उपशमरूप होगया। और कषायोंके उदयका अभाव होनेसे अपने गुणस्थानके कालमें समानरूप विशुद्धपरिणाम होते हैं । हीनाधिकता नहीं होती ॥ ३०० ॥ ऐसा यथाख्यात चारित्र होता है।
अंतोमुहुत्तमेत्तं उवसंतकसायवीयरायद्धा । गुणसेढीदीहत्तं तस्सद्धा संखभागो दु ॥ ३०१ ॥
अंतर्मुहूर्तमानं उपशांतकषायवीतरागाद्धा ।
गुणश्रेणीदीर्घत्वं तस्याद्धा संख्यभागस्तु ॥ ३०१ ॥ अर्थ-उपशांतकषाय वीतराग ग्यारवें गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है। उससे परे नियमकर द्रव्यकर्मके उदयके निमित्तसे संक्लेशरूप भावकर्म प्रगट होजाता है । और इस कालके संख्यातवें भागमात्र यहां उदयादि अवस्थित गुणश्रेणी आयाम है ॥ ३०१ ॥
उदयादिअवट्ठिदगा गुणसेढी दवमवि अवडिदगं । पढमगुणसेढिसीसे उदये जेहें पदेसुदयं ॥३०२॥ उदयाद्यवस्थितका गुणश्रेणी द्रव्यमपि अवस्थितकम् ।
प्रथमगुणश्रेणिशीर्षे उदये ज्येष्ठं प्रदेशोदयम् ॥ ३०२ ॥ अर्थ-उपशांतकषायमें उदयादि अवस्थित गुणश्रेणी आयाम है और यहां परिणाम अवस्थित है उसके निमित्तसे अपकर्षणरूप द्रव्यका प्रमाण भी अवस्थित है । तथा प्रथमसयममें की गई गुणश्रेणीका अन्तनिषेक जिससमय उदय आवे उस समय उत्कृष्ट परमाणु. ओंका उदय जानना ॥ ३०२ ॥