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लब्धि सारः ।
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पल्यका असंख्यातवां भागमात्र स्थितिबंधापसरण होता है । इसप्रकार अधःप्रवृत्तिकरण में अपसरण संख्यात हजार होते हैं ॥ ३९ ॥
आदिमकरणद्धाए पढमट्ठिदिबंधदो दु चरिमम्हि । संजगुणविहीण ठिदिबंधो होइ णियमेण ॥ ४० ॥ आदिमकरणाद्धायां प्रथमस्थितिबंधतस्तु चरमे ।
संख्यातगुणविहीनः स्थितिबंधो भवति नियमेन ॥ ४० ॥ अर्थ - पहले कालमें पहले समयकी अंतःकोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण स्थितिबंधसे उसके अंतसमय में संख्यातगुणा हीन स्थितिबंध नियमसे होता है ॥ ४० ॥
तच्चरिमे ठिदिबंघो आदिमसम्मेण देससयलजमं । पडिवजमाणगस्स वि संखेज्जगुणेण हीणकमो ॥ ४१ ॥ तच्चरमे स्थितिबंध आदिमसम्येन देशसकलयमम् । प्रतिपद्यमानस्यापि संख्येयगुणेन हीनक्रमः ॥ ४१ ॥
अर्थ- उस अंत के समय में जो स्थितिबंध कहा है उससे देशसंयमसहित प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके संख्यातगुणा कम स्थितिबंध होता है । उससे सकलसंयम (चरित्र) सहित प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके संख्यातगुणा कम स्थितिबंध होता है ॥। ४१॥
आदिमकरणद्धाए पडिसमयमसंखलोगपरिणामा ।
अहिकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो हु पडिभागो ॥ ४२ ॥ आदिम करणाद्धायां प्रतिसमयमसंख्य लोकपरिणामाः ।
अधिकमा हि विशेषे मुहूर्तातर्हि प्रतिभागः ॥ ४२ ॥
अर्थ - पहले अधःप्रवृत्तकरण कालमें त्रिकालवर्ती जीवोंके जो कषायोंके विशुद्धस्थान होते हैं उनमें समय समयके प्रति संभव असंख्यात लोकमात्र परिणाम हैं । वे पहले समयसे द्वितीय आदि समयों में क्रमसे समान प्रमाणरूप एक एक विशेष ( चय ) कर बढते हुए जानने । और उस चयका प्रमाण अंतर्मुहूर्तमात्र भागहारका भाग देने से आता है ॥ ४२ ॥
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ताए अधापवत्तद्वाए संखेज्जभागमेत्तं तु ।
अणुकट्ठीए अद्धा णिवग्गणकंडयं तं तु ॥ ४३ ॥ तस्या अधःप्रवृत्ताद्धायाः संख्येयभागमात्रं तु ।
अनुकृष्ट्या अद्धा निर्वर्गणकांडकं तत्तु ॥ ४३ ॥
अर्थ — उस अधःप्रवृत्तकाल के प्रमाण जो ऊर्ध्व गच्छ उसके संख्यातवें भागमात्र अनु