________________
लब्धिसारः।
अवरे विरतस्थाने भवंत्यनंतानि स्पर्धकानि ततः ।
पट्रस्थानगतानि सर्वाणि लोकानामसंख्यं षट्स्थानानि ॥ १९० ॥ अर्थ-सकलसंयमके जघन्यस्थानमें अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेद हैं वे जीवराशिसे अनन्तगुणे जानने । वे स्थान षट्रस्थानपतित वृद्धिलिये असंख्यात लोकमात्र हैं उनमें असंख्यातलोकमात्र वार षट्स्थानपतित वृद्धिका सम्भव है ॥ १९० ॥
तत्थ य पडिवादगया पडिवजगयात्ति अणुभयगयात्ति । उवरुवरि लद्धिठाणा लोयाणमसंखछटाणा ॥ १९१ ॥ तत्र च प्रतिपातगता प्रतिपद्यगता इति अनुभयगता इति ।
उपर्युपरि लब्धिस्थानानि लोकानामसंख्यषटूस्थानानि ॥ १९१ ॥ अर्थ-उस सकलसंयममें भी तीनप्रकार स्थान हैं-प्रतिपातगत १ प्रतिपद्यमान २ अनुभयगत ३ । ये लब्धिस्थान ऊपर ऊपर रचनावाले जानना । वे हर एक असंख्यातलोकमात्र हैं वहांपर असंख्यातलोकमात्र वार षट्स्थानरूप वृद्धिका सम्भव है ॥ १९१॥
पडिवादगया मिच्छे अयदे देसे य होंति उवरुवरि । पत्तेयमसंखमिदा लोयाणमसंखछट्ठाणा ॥ १९२ ॥ प्रतिपातगतानि मिथ्ये अयते देशे च भवंति उपर्युपरि ।
प्रत्येकमसंख्यमितानि लोकानामसंख्यषटूस्थानानि ॥ १९२ ॥ अर्थ-उन स्थानोंमेंसे प्रतिपातगत स्थान सकल संयमसे भ्रष्ट होनेके अन्तसमयमें पाये जाते हैं । वहांपर जघन्यसे लेकर असंख्यातलोकमात्र स्थान तो मिथ्यात्वके सन्मुख होनेवाले जीवोंके होते हैं उनके ऊपर असंख्यातलोकमात्र असंयतके सन्मुख होनेवालेके होते हैं । उसके वाद असंख्यातलोकमात्र स्थान देशसंयतके सन्मुख हुए जीवके होते हैं। इसप्रकार प्रतिपातस्थान तीन तरहके हैं । उन तीनों जगह जघन्य स्थान यथायोग्य तीव्रसंक्लेशवालेके और उत्कृष्टस्थान मंदसंक्लेशवालेके होते हैं । तथा हरएकमें असंख्यातलोकमात्र छहस्थान सम्भवते हैं ॥ १९२ ॥
तत्तो पडिवजगया अजमिलेच्छे मिलेच्छअजे य । कमसो अवरं अवरं वरं वरं होदि संखं वा ॥ १९३॥ ततः प्रतिपद्यगता आर्यम्लेच्छे म्लेच्छार्ये च ।
क्रमशो अवरमवरं वरं वरं भवति संख्यं वा ॥ १९३ ॥ अर्थ-उनके वाद प्रतिपद्यमानस्थानोंमेंसे प्रथम आर्यखण्डका मनुष्य मिथ्यादृष्टिसे संयमी हुआ उसके जघन्य स्थान हैं। उसके वाद असंख्यात लोकमात्र षटू स्थानके ऊपर