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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-सम्यक्त्वमोहनीकी प्रथमस्थितिमें उदयावलि प्रत्यावलि ऐसे दो आवली शेष रहें तब तक द्वितीयस्थितिके द्रव्यको अपकर्षणके वशसे प्रथमस्थितिमें निक्षेपण करते हैं। वहां तक ही दर्शनमोहकी गुणश्रेणी है ॥ २१३ ॥
सम्मादिठिदिज्झीणे मिच्छद्दवादु सम्मसंमिस्से । गुणसंकमो ण णियमा विज्झादो संकमो होदि ॥ २१४ ॥
सम्यगादिस्थितिक्षीणे मिथ्यद्रव्यात् सम्यसंमिश्रे ।
गुणसंक्रमो न नियमात् विध्यातः संक्रमो भवति ॥ २१४ ॥ - अर्थ-सम्यक्वमोहनीकी प्रथमस्थितिके क्षय होनेपर उसके वाद अन्तरायामके प्रथमसमयमें द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होता है वहां नियमसे गुणसंक्रमण नहीं होता विध्यात संक्रमण होता है । इसलिये विध्यातसंक्रमण भागहार मिथ्यात्वके द्रव्यको मिश्रसम्यक्त्व मोहनीयमें निक्षेपण करते हैं ॥ २१४ ॥ ... सम्मत्तुप्पत्तीए गुणसंकमपूरणस्स कालादो।
संखेजगुणं कालं विसोहिवड्डीहिं वड्डदि हु॥ २१५ ॥
सम्यक्त्वोत्पत्तौ गुणसंक्रमपूरणस्य कालात् ।
संख्येयगुणं कालं विशुद्धिवृद्धिभिः वर्धते हि ॥ २१५ ॥ अर्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें पूर्वकथित गुणसंक्रम पूरणके अन्तर्मुहूर्तमात्रकालसे संख्यातगुणे कालतक यह द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि प्रथमसमयसे लेकर समय समय प्रति अनन्तगुणी विशुद्धिकर वढता है। ऐसे यहां एकांतविशुद्धताकी वृद्धिका काल अन्त. मुहूर्तमात्र जानना ॥ २१५ ॥
तेण परं हायदि वा वडदि तबढिदो विसुद्धीहिं।
उवसंतदंसणतियो होदि पमत्तापमत्तेसु ॥ २१६ ॥ ... तेन परं हीयते वा वर्धते तद्वृद्धितो विशुद्धिभिः ।
उपशांतदर्शनत्रिकः भवति प्रमत्ताप्रमत्तयोः ॥ २१६॥ अर्थ-उस एकांतवृद्धिकालके वाद विशुद्धतासे घटे अथवा वढे अथवा जैसाका तैसा रहे । कुछ नियम नहीं है । इसतरह जिसने तीन दर्शनमोह उपशम किये हैं ऐसा जीव बहुतवार प्रमत्त अप्रमत्तमें चक्कर करता है ॥ २१६ ॥
एवं पमत्तमियर परावत्तिसहस्सयं तु कादूण । इगवीसमोहणीयं उवसमदि ण अण्णपयडीसु ॥ २१७ ॥
एवं प्रमत्तमितरं परावर्तिसहस्रकं तु कृत्वा । . एकविंशमोहनीयं उपशमयति न अन्यप्रकृतिषु ॥ २१७ ॥