Book Title: Labdhisara
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 81
________________ लब्धिसारः । ६५ free निकाचना इन तीन अवस्थाओंकी व्युच्छित्ति होती है । इन तीनोंका स्वरूप कर्मकांडमें हैं ॥ २२४ ॥ अंतोकोडाकोडी अंतोकोडी य संत बंधं च । सत्तहं पयडीणं अणियट्टीकरणपढमम्हि ॥ २२५ ॥ अंतःकोटीकोटि : अंतः कोटिश्च सत्त्वं बंधच । सप्तानां प्रकृतीनां अनिवृत्तिकरणप्रथमे ॥ २२५ ॥ अर्थ — अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमय में आयुके विना सातकर्मोंका स्थितिसत्त्व यथायोग्य अन्तःकोड़ाकोड़िसागरमात्र है और स्थितिबन्ध अन्तःकोटीसागरमात्र है । अपूर्वकरणमें घटा - से इतना कम रह जाता है ॥ २२५ ॥ 1 ठिदिबंध सहस्सगदे संखेज्जा वादरे गदा भागा । तत्थ असण्णस्स ठिदीसरिस ट्ठिदिबंधणं होदि ॥ २२६ ॥ स्थितिबंधसहस्रगते संख्येया बादरे गता भागाः । तत्र असंज्ञिनः स्थितिसदृशं स्थितिबंधनं भवति ।। २२६ ॥ अर्थ — स्थितिबन्धा पसरण के क्रमसे हजारों स्थितिबन्ध होजानेपर अनिवृत्तिकरणकाल के संख्यातभागोंमेंसे बहुभाग वीत जानेपर एकभाग शेष रहते असंज्ञीके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होता है ॥ २२६॥ ठिदिबंधपुधत्तगदे पत्तेयं चदुर तिय वि एएदि । ठिदिबंध समं होदि हु ठिदिबंधमणुक्कमेणेव ॥ २२७ ॥ स्थितिबंध पृथक्त्वगते प्रत्येकं चतुस्त्रिद्वि एकेति । स्थितिबंधसमो भवति हि स्थितिबंधोऽनुक्रमेणैव ॥ २२७ ॥ अर्थ —उसके वाद हरएक के संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीत जानेपर क्रमसे चौइन्द्री ते इन्द्री दो इन्द्री केंद्रीके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होता है ॥ २२७ ॥ एइंदियट्ठिदीदो संखसहस्से गदे दु ठिदिबंधो । पलेकदिवदुगे ठिदिबंधो वीसियतियाणं ॥ २२८ ॥ एकेंद्रियस्थितितः संख्यसहस्रे गते तु स्थितिबंधः । पल्यैकद्व्यर्धद्विके स्थितिबंधो विंशतित्रिकाणाम् ॥ २२८ ॥ अर्थ- - उस एकेंद्रीसमान स्थितिबन्धसे परे संख्यात हजार स्थितिबन्ध वीत जानेपर वीसियका एक पल्य तीसियका डेढ पल्य चालीसियका दो पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध होता है || २२८ ॥ यहांपर असंज्ञीके सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिधारक दर्शनमोहका ल. सा. ९

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