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लब्धिसारः। __ आगे जिन्होंने सब दोष उपशांत किये हैं ऐसे उपशांतकषाय वीतरागको प्रणामकर उपशमचारित्रका विधान कहते हैं;
उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अणं विजोयित्ता । अंतोमुहुत्तकालं अधापवत्तो पमत्तो य ॥२०३॥ उपशमचरित्राभिमुखो वेदकसम्यक् अनं वियोज्य ।
अंतर्मुहूर्तकालं अधाप्रवृतः प्रमत्तश्च ॥ २०३ ॥ अर्थ-उपशम चारित्रके सन्मुख हुआ ऐसा वेदक सम्यग्दृष्टी जीव वह पहले कहे हुए विधानसे अनन्तानुबन्धीका विसंयोजनकर अन्तर्मुहूर्तकालतक अधाप्रवृत्त अप्रमत्त है अर्थात् खस्थान अप्रमत्त होता है वहां प्रमत्त अप्रमत्त दोनोंमें हजारोंवार जाना आना कर वादमें अप्रमत्तमें विश्राम करता है ॥ २०३ ॥ कोई जीव तीन दर्शनका क्षयकर क्षायिक सम्य. ग्दृष्टि हुआ चारित्रमोहके उपशमनका आरंभ करता है उसके तो पूर्व कहा हुआ क्षायिकसम्यक्स्व होनेका विधान जानलेना ।
आगे कोई जीव द्वितीयोपशमसम्यक्त्व सहित उपशमश्रेणी चढे उसके दर्शनमोहके उपशमनका विधान कहते हैं
तत्तो तियरणविहिणा दंसणमोहं समं खु उवसमदि । सम्मत्तुप्पतिं वा अण्णं च गुणसेढिकरणविही ॥ २०४॥ ततः त्रिकरणविधिना दर्शनमोहं समं खलु उपशमयति ।
सम्यक्त्वोत्पतिमिव अन्यं च गुणश्रेणिकरणविधिः ॥ २०४ ॥ अर्थ-खस्थान अप्रमत्तमें अन्तर्मुहूर्त विश्रामकर उसके बाद तीनकरणविधिसे एक समयमें दर्शनमोहका उपशम करता है । वहांपर अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी तरह गुणसंक्रमणके विना अन्यस्थिति अनुभागकांडकका घात वा गुणश्रेणीनिर्जरा आदि सब विधान जानना । और इसके जो अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होता है उसमें भी स्थितिखण्डनादि सब पूर्वकथितवत् जानने ॥ २०४ ॥
दसणमोहुवसमणं तक्खवणं वा हु होदि णवरिं तु । गुणसंकमो ण विजदि विज्झद वाधापवत्तं च ॥ २०५॥ दर्शनमोहोपशमनं तत्क्षपणं वा हि भवति नवरि तु। .
गुणसंक्रमो न विद्यते विध्यातं वा अधःप्रवृत्तं च ॥ २०५ ॥ अर्थ-चारित्रमोहको उपशमानेके सन्मुख हुए जीवके दर्शनमोहका उपशम होता है अथवा क्षय होता है । वहां विशेष इतना है कि उपशमविधानमें केवलगुणसंक्रमण नहीं होता, विध्यातसंक्रमण अथवा अधःप्रवृत्त संक्रम है। उसका विशेष आगे कहेंगे ॥२०५॥