________________
लब्धिसारः। पडचरिमे गहणादीसमये पडिवाददुगमणुभयं तु । तम्मज्झे उवरिमगुणगहणाहिमुहे य देसं वा ॥ १९६ ॥
पतनचरमे ग्रहणादिसमये प्रतिपातद्विकमनुभयं तु ।
तन्मध्ये उपरितनगुणग्रहणाभिमुखे च देशमिव ॥ १९६ ॥ अर्थ-संयमसे पड़नेके अन्तसमयमें और संयमके ग्रहणके प्रथम समयमें क्रमसे प्रतिपात और प्रतिपद्यमान ये दो स्थान हैं और इनके बीचमें अथवा ऊपरके गुणस्थानके सन्मुख होनेपर अनुभयस्थान होते हैं वे देशसंयमकी तरह यहां भी जानने ॥ १९६ ॥
पडिवादादीतिदयं उवरुवरिमसंखलोगगुणिदकमा । अंतरछक्कपमाणं असंखलोगा हु देसं वा ॥ १९७ ॥ प्रतिपातादित्रितयं उपर्युपरितनमसंख्यलोकगुणितक्रमं ।
अंतरषटप्रमाणमसंख्यलोको हि देशमिव ॥ १९७ ॥ __ अर्थ-प्रतिपातआदि तीन स्थान अपने २ जघन्यसे उत्कृष्टतक ऊपर ऊपर असंख्यातलोकगुणा क्रमलिये हुए हैं। उन छहोंमें प्रत्येकमें असंख्यातलोकमात्रवार षट्स्थान वृद्धि देशसंयमकी तरह जाननी ॥ १९७ ॥
मिच्छयददेसभिण्णे पडिवादट्ठाणगे वरं अवरं । तप्पाउग्गकिय? तिवकिलिटे कमे चरिमे ॥ १९८ ॥ मिथ्यायतदेशभिन्ने प्रतिपातस्थानके वरमवरम् ।
तत्प्रायोग्यक्लिष्टे तीव्रक्लिष्टे क्रमेण चरमे ॥ १९८ ॥ अर्थ-प्रतिपातस्थान मिथ्यात्व असंयत देशसंयतको सन्मुख होनेकी अपेक्षा तीन भेद लिये है । वहां जघन्यस्थान तो तीव्र संक्लेशवालेके संयमके अन्तसमयमें होता है और उत्कृष्टस्थान यथायोग्य मन्दसंक्लेशवालेके होते हैं ॥ १९८ ॥
पडिवजजहण्णदुर्ग मिच्छे उक्कस्सजुगलमवि देसे । उवरि सामइयदुगं तम्मज्झे होंति परिहारा ॥ १९९ ॥ प्रतिपद्यजघन्यद्विकं मिथ्ये उत्कृष्टयुगलमपि देशे ।
उपरि सामायिकद्विकं तन्मध्ये भवंति परिहाराणि ॥ १९९ ॥ अर्थ-प्रतिपद्यमानस्थान आर्यम्लेच्छकी अपेक्षा दो प्रकारसे हैं उनका जघन्य तो मिथ्यादृष्टि से संयमी हुए जीवके होता है वा उत्कृष्ट देशसंयतसे संयमी हुएके होता है।
ल, सा.८