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लब्धिसारः। अर्थ-सबसे जघन्य पूर्वोक्त देशसंयमके स्थानमें अविभागप्रतिच्छेद अनन्तानन्त पाये जाते हैं । वे सब जीवराशिसे अनन्तगुणे हैं । और इस जघन्य स्थानसे लेकर असंख्यातलोकमात्र देशसंयमलब्धिके स्थान हैं वे छह स्थानरूप वृद्धिको लिये हुए हैं ।। १८३ ॥
तत्थ य पडिवायगया पडिपश्चगयात्ति अणुभयगयात्ति । उवरुवरिलद्धिठाणा लोयाणमसंखछट्ठाणा ॥ १८४ ॥ तत्र च प्रतिपातगता प्रतिपद्यगता इति अनुभयगता इति ।
उपर्युपरि लब्धिस्थानानि लोकानामसंख्यषट्स्थानानि ॥ १८४ ॥ अर्थ-वहां देशसंयमके स्थान तीनप्रकार हैं । प्रतिपातगत १ प्रतिपद्यमानगत २ अनुभयगत ३ । वे लब्धिस्थान ऊपर २ हैं । और असंख्यातलोकमात्र स्थान षट्स्थान पतित वृद्धिको लिये हुए मध्यमें होते हैं ॥ १८४ ॥ देशसंयमसे भ्रष्ट होनेपर अन्तसमयमें सम्भव जो स्थान वे प्रतिपातगत हैं । देशसंयमके प्राप्त होनेपर प्रथमसमयमें संभव जो स्थान वे प्रतिपद्यमानगत हैं । और इनके विना अन्यसमयोंमें संभव जो स्थान वे अनुभयगत हैं।
णरतिरिये तिरियणरे अवरं अवरं वरं वरं तिसुवि । लोयाणमसंखेज्जा छहाणा होंति तम्मज्झे ॥ १८५ ॥ नरतिरश्चि तिर्यग्नरे अवरं अवरं वरं वरं त्रिष्वपि ।
लोकानामसंख्येयानि षटूस्थानानि भवंति तन्मध्ये ॥ १८५ ॥ अर्थ-उन प्रतिपात प्रतिपद्यमान अनुभय इन तीनोंके जघन्य जघन्य उत्कृष्ट उत्कृष्ट स्थान मनुष्य तिर्यच तिर्यंच मनुष्योंमें क्रमसे जानना । और उनके बीच में अन्तरस्थान असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानपतित वृद्धि सहित हैं ॥ १८५ ॥
पडिवाददुगवरवरं मिच्छे अयदे अणुभयगजहणं । मिच्छवरविदियसमये तत्तिरियवरं तु संठाणे ॥ १८६ ॥
प्रतिपातद्विकावरवरं मिथ्ये अयते अनुभयगजघन्यं ।
मिथ्यावरद्वितीयसमये तत्तिर्यग्वरं तु स्वस्थाने ॥ १८६ ॥ अर्थ-मिथ्यात्वके सन्मुख जीवके प्रतिपातस्थानों में मनुष्यके जघन्यसे लेकर तिर्यचके उत्कृष्टस्थानतक जो स्थान हैं वे होते हैं, तिर्यंचके उत्कृष्ट से लेकर मनुष्यके उत्कृष्टस्थानतक जो स्थान वे असंयतके सन्मुख हुए जीवके होते हैं । प्रतिपद्यमानस्थानोंमें मनुष्यके जघन्यसे लेकर तिर्यचके उत्कृष्टतक स्थान मिथ्यादृष्टिसे देशसंयतको प्राप्त होनेवालेके ही होते हैं । तिर्यचके उत्कृष्ट से लेकर मनुष्यके उत्कृष्टतक स्थान असंयतसे देशसंयत हुएके