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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । पल्यस्य संख्यभागं चरमस्थितिखंडकं भवेत् यस्मात् ।
सस्मादसंख्यगुणितं चरमं स्थितिखंडकं भवति ॥ १८० ॥ अर्थ-यह कहा गया जो अन्तमें सम्भवता जघन्यस्थितिकांडक आयाम वह पल्यके संख्यातवें भागमात्र है क्योंकि पूर्वोक्त अन्तर्मुहूर्तकालसे यह अन्तखण्ड असंख्यातगुणा कहा है ॥ १८०॥
पढमे अवरो पल्लो पढमुक्कस्सं च चरिमठिदिबंधो। पढमो चरिमं पढमठिदिसंतं संखगुणिदकमा ॥ १८१ ॥ प्रथमे अवरः पल्यः प्रथमोत्कृष्टं च चरमस्थितिबंधः ।
प्रथमः चरमं प्रथमस्थितिसत्त्वं संख्यगुणितक्रमाणि ॥ १८१ ॥ अर्थ-उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें सम्भवता जघन्य स्थितिकांडक आयाम है १२ । उससे संख्यातगुणा पत्य है १३ । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें सम्भवता पृथक्त्वसागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिकांडक आयाम है १४ । उससे संख्यातगुणा जघन्यस्थितिबन्ध है १५ । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें सम्भवता उत्कृष्टस्थितिबन्ध है १६ । उससे संख्यातगुणा एकांतवृद्धिके अन्तसमयमें सम्भवता जघन्यस्थितिसत्त्व है १७ । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें सम्भवता उत्कृष्टस्थितिसत्त्व है १८ । इसप्रकार कालके अल्प बहुत्व स्थान कहे ॥ १८१ ॥ आगे देशसंयममें परिणामोंकी विशुद्धतारूप लब्धिका अल्प बहुत्व कहते हैं
अवरवरदेसलद्धी सेकाले मिच्छसंजमुववण्णे। अवरादु अणंतगुणा उक्कस्सा देसलद्धी दु ॥ १८२ ॥ अवरवरदेशलब्धिः स्वकाले मिथ्यसंयममुपपन्ने ।
अवरादनंतगुणा उत्कृष्टा देशलब्धिस्तु ॥ १८२ ॥ अर्थ-जो जीव देशसंयमके घातक कर्मके उदयसे देशसंयमसे गिरा हुआ मिथ्यात्वके सन्मुख होता है उस मनुष्यके देशसंयमके अन्तमें जघन्य देशसंयमलब्धि होती है । और अनन्तगुणी विशुद्धतासे देशसंयमके उत्कृष्टपनेको पाकर उसके वादके समयमें सकलसंयमको जो प्राप्त होगा ऐसे मनुष्यके उत्कृष्ट देशसंयमलब्धि होती है । तथा जघन्य देशसंयमके अविभागप्रतिच्छेदोंसे अनन्तानन्तगुणे उत्कृष्ट देशसंयमके अविभागप्रतिच्छेद हैं ॥ १८२ ॥
अवरे देसठ्ठाणे होंति अणंताणि फड्ढयाणि तदो। छठाणगदा सवे लोयाणमसंखछट्ठाणा ॥ १८३॥
अवरे देशस्थाने भवंत्यनन्तानि स्पर्धकानि ततः। षट्स्थानगतानि सर्वाणि लोकानामसंख्यषटूस्थानानि ॥ १८३ ॥