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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ठिदिरसघादो णत्थि हु अधापवत्ताभिधाणदेसस्स । पडिउट्ठदे मुहुत्तं संतेण हि तस्स करणदुगा ॥ १७३॥ स्थितिरसघातो नास्ति हि अधाप्रवृत्ताभिधानदेशस्य ।
प्रतिपतिते मुहूर्त संयतेन हि तस्य करणद्विकम् ॥ १७३ ॥ अर्थ-अधाप्रवृत्त देससंयतके कालमें स्थितिखण्डन वा अनुभागखण्डन नहीं होता और जो बाह्य कारणोंसे सम्यक्त्व वा देशसंयतसे भ्रष्ट होकर मिथ्यादृष्टि होता है वहां बड़ा अन्तर्मुहूर्त वा संख्यात असंख्यातवर्षतक रहकर फिर वेदक सम्यक्त्वसहित देशसंयमको ग्रहण करे उसके अधःप्रवृत्त अपूर्वकरण दो करण होते हैं । इसलिये स्थिति अनुभा. गकांडकका घात भी होता है ॥ १७३ ॥
देसो समये समये सुझंतो संकिलिस्समाणो य । चउवढिहाणिदचादवविदं कुणदि गुणसेढिं ॥ १७४ ॥ देशः समये समये शुध्यन् संक्लिश्यन् च ।
चतुर्वृद्धिहानिद्रव्यादवस्थितां करोति गुणश्रेणिम् ॥ १७४ ॥ अर्थ-अधाप्रवृत्त देशसंयत जीव संक्लेशी हुआ विशुद्धताकी वृद्धि समय समयमें करता उसके अनुसार कभी असंख्यातवें भाग वढता कभी संख्यातवें भाग वढता कभी संख्यातगुणा कभी असंख्यातगुणा द्रव्यको अपकर्षणकर गुणश्रेणीमें निक्षेपण करता है । और विशुद्धताकी हानिके अनुसार कभी असंख्यातवें भाग घटता कभी संख्यातवें भाग घटता कभी संख्यातगुणा घटता कभी असंख्यातगुणा घटता द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेणीमें निक्षेपण करता है । इसप्रकार अधाप्रवृत्त देशसंयतके सबकालमें समय समय यथासंभव चतुस्थान पतित वृद्धि हानि लिये गुणश्रेणी विधान पायाजाता है ॥ १७४ ॥
विदियकरणादु जावय देसस्सेयंतवढिचरिमेति । अप्पावहुगं वोच्छं रसखंडद्धाण पहुदीणं ॥ १७५ ॥ द्वितीयकरणात् यावत् देशस्यैकांतवृद्धिचरमे इति ।
अल्पबहुत्वं वक्ष्ये रसखंडाद्धानां प्रभृतीनाम् ॥ १७५ ॥ अर्थ-दूसरे अपूर्वकरणसे लेकर एकांत वृद्धि देशसंयतके अन्ततक संभव जो जघन्य अनुभाग खण्डोत्करणकालादिरूप अठारह स्थान उनके अल्प बहुत्वको मैं कहूंगा ॥ १७५॥
अंतिमरसखंडुक्कीरणकालादो दु पढमओ अहिओ। चरिमझिदिखंडुक्कीरणकालो संखगुणिदो हु॥ १७६ ॥
अंतिमरसखंडोत्करणकालतस्तु प्रथमो अधिकः । चरमस्थितिखंडोत्करणकालः संख्यगुणितो हि ॥ १७६ ॥