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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । चारित्रलब्धिका अधिकार ॥२॥
आगे चारित्रलब्धिका स्वरूप कहते हैं;
दुविहा चरितलद्धी देसे सयले य देसचारित्तं । मिच्छो अयदो सयलं तेचि य देसो य लब्भेई ॥१६६ ॥
द्विविधा चारित्रलब्धिः देशे सकले च देशचारित्रम् ।
मिथ्यो अयत: सकलं तावपि च देशश्च लभते ॥ १६६ ॥ अर्थ-चारित्रकी लब्धि अर्थात् प्राप्ति वह चारित्रलब्धि है वह देश सकलके भेदसे दो प्रकारकी है । उनमेंसे देश चारित्रको मिथ्यादृष्टि वा असंयत सम्यग्दृष्टी प्राप्त होता है और सकल चारित्रको वे दोनों तथा देशसंयत प्राप्त होता है ॥ १६६॥
अंतोमुहुत्तकाले देसवदी होहिदित्ति मिच्छो हु। सोसरणो सुझंतो करणेहिं करेदि सगजोग्गं ॥ १६७ ॥ . अन्तमुहूर्तकाले देशव्रती भविष्यतीति मिथ्यो हि ।
. सापसरणः शुध्यन् करणानि करोति स्वकयोग्यम् ॥ १६७ ॥ अर्थ-अन्तर्मुहूर्तकालके वाद जो देशव्रती होगा वह मिथ्यादृष्टि जीव समय समय अनन्तगुणी विशुद्धतासे बढे तो आयुके विना सातकर्मोंका बन्ध वा सत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ीमात्र शेष करनेसे स्थितिबन्धापसरणको करता हुआ अशुभकर्मोंका अनुभाग अनन्तवें भागमात्र करनेसे अनुभागबन्धापसरणको करता हुआ अपने योग्य करण परिणामोंको करता है ॥ १६७ ॥
मिच्छो देसचरित्तं उवसमसम्मेण गिण्हमाणो हु । सम्मत्तुप्पत्तिं वा तिकरणचरिमम्हि गेण्हदि हु॥ १६८॥ मिथ्यो देशचारित्रं उपशमसम्येन गृह्णन हि।।
सम्यक्त्वोत्पत्तिमिव त्रिकरणचरमे गृह्णाति हि ॥ १६८ ॥ अर्थ-अनादि वा सादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वसहित देशचारित्रको ग्रहण करता है वह सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके कथनकी तरह तीनकरणोंके अन्तसमयमें देशचारित्रको ग्रहण करता है । अर्थात् प्रकृतिबन्धापसरण स्थितिबंधापसरण आदि जो कार्यविशेष वहां कहे हैं वे सब होते हैं कुछ विशेषता नहीं है ॥ १६८ ॥
मिच्छो देसचरित्तं वेदगसम्मेण गेण्हमाणो हु। दुकरणचरिमे गेण्हदि गुणसेढी णत्थि तक्करणे ॥ १६९ ॥