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लब्धिसारः ।
सम्मत्तुष्पत्तिं वा थोववहुत्तं च होदि करणाणं । ठिदिखंडसह स्सगदे अपुत्रकरणं समप्पदि हु ॥ १७० ॥ मिथ्यो देशचारित्रं वेदकसम्येन गृह्णन् हि ।
द्विकरणचर मे गृह्णाति गुणश्रेणी नास्ति तत्करणे ॥ १६९ ॥ सम्यक्त्वोत्पत्तिमिव स्तोकबहुत्वं च भवति करणानाम् । स्थितिखंडसहस्रगते अपूर्वकरणं समाप्यते हि ॥ १७० ॥
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अर्थ - सादि मिथ्यादृष्टि जीव वेदक सम्यक्त्वसहितं देशचारित्रको ग्रहण करे तो उसके अधःकरण अपूर्वकरण ये दोही करण होते हैं उनमें गुणश्रेणीनिर्जरा नहीं होती अन्य स्थितिखंडादि सब कार्य होते हैं । वह अपूर्वकरणके अन्तसमय में एक ही वक्त वेदक सम्यक्त्व और देशचारित्रको ग्रहण करता है क्योंकि अनिवृत्ति करणके बिना ही इनकी प्राप्ति है । वहां पर प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पति की तरह करणोंका अल्पबहुत्व है इस लिये यहां अधःकरणकालसे अपूर्वंकरणका काल संख्यातवें भाग है और अपूर्वकरणकाल में संख्यात हजार स्थितिखंड वीतनेपर अपूर्वकरणका काल समाप्त होता है ।। १६९। १७०॥ से काले सवदी असंखसमयष्पवद्धमाहरिय |
उदयावलिस्स वाहिं गुणसेढिमवट्ठिदं कुणदि ॥ १७१ ॥
तस्मिन् काले देशव्रती असंख्यसमयप्रबद्धमाहृत्य । उदयावलेर्बाह्यं गुणश्रेणीमवस्थितां करोति ॥ १७१ ॥
अर्थ - अपूर्णकरण के अन्तसमयके वाद में जीव देशत्रती होकर असंख्यातसमय प्रबद्ध प्रमाण द्रव्यको ग्रहणकर उदयावलीसे बाह्य अवस्थित गुणश्रेणी आयाम करता है ॥ १७१ ॥ दवं असंखगुणियकमेण एतबुद्धिकालोत्ति ।
बहुठिदिखंडे तीते अधापवत्तो हवे देसो ॥ १७२ ॥
द्रव्यमसंख्यगुणितक्रमेण एकांतवृद्धिकाल इति ।
बहुस्थितिखंडेती अधाप्रवृत्तो भवेद्देशः ॥ १७२ ॥
अर्थ – देशसंयत के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्ततक समय समय अनन्तगुणी विशु
समय समय असं -
द्धतासे बन्धता है उसे एकांतवृद्धि कहते हैं । उस एकांतवृद्धिकाल में ख्यातगुणे क्रमसे द्रव्यको अपकर्षणकर अवस्थित गुणश्रेणी आयाममें निक्षेपण करता है वहां स्थितिकांडकादि कार्य होते हैं और बहुत स्थितिखंड होनेपर एकांतवृद्धिका काल समाप्त होनेके वाद विशुद्धताकी वृद्धि रहित हुआ स्वस्थान देशसंयत होता है । इसीको नवृतसंयत भी कहते हैं । उसका काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट देशोन कोड़ि पूर्व वर्षप्रमाण है ॥ १७२ ॥
ल. सा. ७