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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
होते हैं, और अनुभयस्थानोंमें मनुष्य के जघन्यसे लेकर तिर्यंचके अनुत्कृष्टतक स्थान मिथ्यादृष्टिसे देशसंयत हुएके होते हैं और तिर्यंचके उत्कृष्टसे लेकर मनुष्यके उत्कृष्टतक स्थान असंयत से देशसंयत हुएके होते हैं ॥ १८६ ॥ इति देशचारित्रविधानं ।
अब सकल चारित्रका वर्णन करते हैं;
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सयलचरितं तिविहं खयउवसमि उवसमं च खयियं च । सम्मत्तप्पत्तिं वा उवसमसम्मेण गिण्हदो पढमं ॥ १८७ ॥ सकलचारित्रं त्रिविधं क्षायोपशमिकं औपशमिकं च क्षायिकं च । सम्यक्त्वोत्पत्तिमिव उपशमसम्येन गृह्णन् प्रथमम् ॥ १८७ ॥
अर्थ — सकल चारित्र तीन तरहका है, क्षायोपशमिक १ औपशमिक २ क्षायिक ३ । उनमेंसे पहला क्षायोपशमिक चारित्र सातवें वा छठे गुणस्थान में है उसको जो जीव उपशमसम्यक्त्वसहित ग्रहण करता है वह मिथ्यात्व से ग्रहण करता है उसका सब विधान प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति में कहे गयेकी तरह जानना ॥ १८७ ॥ क्षयोपशमचारित्रको ग्रहण करता हुआ जीव पहले अप्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त होता है ।
वेदगजोगो मच्छो अविरददेसो य दोणिकरणेण । देसवदं वा गिण्हदि गुणसेढी णत्थि तकरणे ॥ १८८ ॥ वेदयोगो मिथ्यो अविरतदेशश्च द्विकरणेन ।
देशव्रतमिव गृह्णाति गुणश्रेणी नास्ति तत्करणे ॥ १८८ ॥
अर्थ-वेदक सम्यक्त्व सहित क्षयोपशमचारित्रको मिथ्यादृष्टि वा अविरत वा देशसंयत जीव है वह देशव्रत के ग्रहण करनेकी तरह अधःप्रवृत्त करण अपूर्व करण इन दोनों करणोंसे ग्रहण करता है । वहां करणोंमें गुणश्रेणी नहीं है । सकल संयम के ग्रहण समय से लेकर गुणश्रेणी होती है ॥ १८८ ॥
तो वरं वरदे देसो वा होदि अप्पबहुगोत्ति ।
देसोति य तट्ठाणे विरदो ति य होदि वत्तवं ॥ १८९ ॥
अत उपरि विरते देश इव भवति अल्पबहुकत्वमिति ।
देश इति च तत्स्थाने विरत इति च भवति वक्तव्यम् ॥ १८९ ॥
अर्थ —यहांसे ऊपर सकल विरतमें अल्पबहुत्व देशविरतकी तरह जानना । लेकिन इतना भेद है कि जिस जगह देशविरत कहा है उस जगह सकलविरत कहना चाहिये ॥ १८९ ॥
aat forgetति अनंताणि फड्डयाणि तदो । छाणगया सबै लोयाणमसंख छट्टाणा ॥ १९० ॥