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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
तगुणा कमकर देना । और शेष बहुभागमात्र द्रव्य गुणश्रेणीके अन्तनिषेकमें निक्षेपण
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करना ॥ १४४ ॥
चरि फालिं दिणे कदकरणिजेत्ति वेदगो होदि । सो वा मरणं पावइ चउगइगमणं च तट्ठाणे ॥ १४५ ॥ देवे देवम सुरण तिरिए चउग्गईसुपि । कदकरणिज्जोपत्ती कमेण अंतोमुहुत्तेण ॥ १४६ ॥
चरमे फालिं दत्ते कृतकरणीयेति वेदको भवति ।
सवा मरणं प्राप्नोति चतुर्गतिगमनं च तत्स्थाने ॥ १४५ ॥ देवेषु देवमनुष्ये सुरनरतिरश्चि चतुर्गतिष्वपि । कृतकरणीयोत्पत्तिः क्रमेण अन्तर्मुहूर्तेन ॥ १४६॥
अर्थ — इसप्रकार अनिवृत्तिकरणके अन्तसमय में सम्यक्त्वमोहनीके अन्तफालिके द्रव्यको नीचले निषेकोंमें क्षेपण करनेसे अन्तर्मुहूर्त कालतक कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी होता है । वह जीव भुज्यमान आयुंके नाशसे मरण पावे तो सम्यक्त्वग्रहण के पहले जो आयु बांधा था उससे चारों गतियोंमें उत्पन्न होता है । वहां पर कृत्यकृत्यवेदकके कालके चार भाग एक एक अन्तर्मुहूर्तमात्र करने चाहिये । उनमें से पहले भागमें मरे तो देवगतिमें दूसरे भागमें मरे तो देव अथवा मनुष्यमें तीसरे भाग में मरे तो देव वा मनुष्य वा तिर्यचमें और चौथे भागमें मरण करे तो चारों गतियों में से कोई गतिमें उत्पन्न होता है । इस तरह कृतकृत्यवेदककी उत्पत्ति जानना चाहिये ॥ १४५ ॥ १४६॥
करणपढमादु जावय किदुकिच्चुवरिं मुद्दत्तअंतोत्ति ।
सुहाण परावती साधि कओदावरं तु वरिं ॥ १४७ ॥ करणप्रथमात् यावत् कृत्यकृत्योपरि मुहूर्तात इति ।
न शुभानां परावृत्तिः सा हि कपोतावरं तु उपरि ॥ १४७ ॥
अर्थ — अधःकरण के प्रथमसमय से लेकर जबतक कृतकृत्यवेदक है तबतक उस अन्तर्मुहूर्तकाल से प्रथमभागमें मरण करे तो पीत पद्म शुक्लरूप शुभ लेश्याओंका बदलना नहीं होता क्योंकि यहां से मरके देवगतिमें उत्पन्न होता है । और जो अन्यभागों में मरे तो शुभश्याकी क्रमसे हानि होकर मरणसमय कपोतलेश्याका जघन्य अंश होता है ॥ १४७ ॥ अणुसमओ वट्टणयं कदकिजंतोत्ति पुइकिरियादो ।
वहृदि उदीरणं वा असंखसमय पबद्धाणं ॥ १४८ ॥ अनुसमयोपवर्तनं कृतकरणीय इति पूर्वक्रियातः ।
वर्तते उदीरणां वा असंख्य समयप्रबद्धानाम् ॥ १४८ ॥