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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । यदि गोपुच्छविशेष ऋणं भवेत् तथापि धनप्रमाणात् ।
यस्मात् असंख्यगुणोनं न गण्यते तत्ततोत्र ॥ १३७ ॥ अर्थ-यद्यपि नीचले गुणश्रेणी निषेकके सत्त्वद्रव्यसे ऊपरके गुणश्रेणीशीर्षके सत्त्वद्रव्यमें गोपुच्छविशेष ऋण है तो भी मिलाये हुए अपकृष्ट द्रव्यसे यह चयप्रमाण घटता हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा कमती है सो यहांपर घटाने योग्य ऋणको मिलाने योग्य धनसे असंख्यातवें भाग जानकर थोड़ेपनेसे नहीं गिना । पूर्व गुणश्रेणीशीर्षके दृश्य द्रव्यसे उत्तर गुणश्रेणीशीर्षका द्रव्य विशेष अधिक ही कहा है ॥ १३७ ॥
तत्तकाले दिस्सं वजिय गुणसेढिसीसयं एकं । उवरिमठिदीसु वट्टदि विसेसहीणकमेणेव ॥ १३८॥
तत्तत्काले दृश्यं वर्जयित्वा गुणश्रेणिशीर्षकमेकम् ।
उपरिमस्थितिषु वर्तते विशेषहीनक्रमेणैव ॥ १३८ ॥ अर्थ-उस उस समयमें गुणश्रेणीशीर्षरूप हुए एक एक निषेकको छोड़कर उसके ऊपर जो ऊपरकी स्थिति के सब निषेक उनमें तत्काल संभवता दृश्यमान द्रव्य विशेष घटते अनुक्रमलिये ही जानना ॥ १३८ ॥ अब अन्तकांडकका विधान कहते हैं;
गुणसेढिसंखभागा तत्तो संखगुण उवरिमठिदीओ। सम्मत्तचरिमखंडो दुचरिमखंडादु संखगुणो ॥ १३९ ॥
गुणश्रेणिसंख्यभागाः ततः संख्यगुणं उपरितनस्थितयः ।
सम्यक्त्वचरमखंडो द्विचरमखंडात् संख्यगुणः ॥ १३९ ॥ अर्थ-गलितावशेष गुणश्रेणी आयामके संख्यातवें भागसे लेकर संख्यातगुणा ऊपरकी स्थितिके निषेक बाकी रहे उनके अन्तपर्यंत सम्यक्त्वके अन्तकांडकायामका प्रमाण है वह द्विचरमकांडकायामके प्रमाणसे संख्यातगुणा है । तो भी यथायोग्य अन्तर्मुहूर्तमात्र ही है ॥ १३९ ॥
सम्मत्तचरिमखंडे दुचरिमफालित्तितिणि पचाओ। संपहियपुवगुणसेढीसीसे सीसे य चरिमम्हि ॥ १४० ॥ ___ सम्यक्त्वचरमखंडे द्विचरमफालीति त्रयः पर्वाः ।
संप्राप्त पूर्वगुणश्रेणीशीर्षे शीर्षे च चरमे ॥ १४० ॥ अर्थ-सम्यक्त्वमोहनीयके अन्तर्खडकी प्रथम फालिके पतन समयसे लेकर द्विचरमफालिके पतनसमयतक द्रव्यनिक्षेपण करनेमें तीन पर्व जानना । अर्थात् विभागकर तीन जगह द्रव्य देना । उस जगहपर प्रथम समयसे लेकर अवशेष स्थितिके अन्तनिषेकतक