________________
" सहहाद।
३२
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । यानी अनेकान्त वस्तुका खभाव वा रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग वह नहीं रुचता ऐसा जानना ॥१०८॥
मिच्छाइट्ठी जीवो उवइ8 पवयणं ण सद्दहदि । सदहदि असम्भावं उवइटुं वा अणुवइडें ॥१०९॥ मिथ्यादृष्टिर्जीव उपदिष्टं प्रवचनं न श्रद्दधाति ।
श्रद्दधात्यसद्भावमुपदिष्टं वा अनुपदिष्टम् ।। १०९ ॥ अर्थ-मिथ्यादृष्टि जीव जिनेश्वर भगवानकर उपदेशे हुए प्रवचनको श्रद्धान नहीं करता और अन्यकर उपदेशा हो वा विना उपदेशा हो ऐसे अतत्त्वको श्रद्धान कर लेता है ॥ १०९ ॥ इस तरह प्रथमोपशमसम्यक्स का कथन किया। अब क्षायिकसम्यक्त्वका वर्णन करते हैं;
दसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजो मणुसो। तित्थयरपायमूले केवलिसुदकेवलीमूले ॥ ११ ॥
दर्शनमोहक्षपणाप्रस्थापकः कर्मभूमिजो मनुष्यः ।
तीर्थकरपादमूले केवलिश्रुतकेवलिमूले ॥ ११० ॥ अर्थ-जो मनुष्य कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ हो, तीर्थकर वा अन्यकेवली वा श्रुतकेवलीके चरणकमलों में रहता हो वही दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारंभक होता है क्योंकि दूसरी जगह ऐसी परिणामोंमें विशुद्धता नहीं होती ॥ अर्थात् अधःकरणके प्रथम समयसे लेकर जबतक मिथ्यात्वमिश्रमोहनीयका द्रव्य सम्यक्त्वप्रकृतिरूप होके संक्रमण करे तबतक अन्तर्मुहूर्तकाल तक दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारंभक कहा जाता है ॥ ११० ॥
णिट्ठवगो तहाणे विमाणभोगावणीसु धम्मे य । किदकरणिज्जो चदुसुवि गदीसु उप्पजदे जम्हा ॥ १११ ॥
निष्ठापकः तत्स्थाने विमानभोगावनिषु धर्मे च ।। ___ कृतकृत्यः चतुर्वपि गतिषु उत्पद्यते यस्मात् ॥ १११ ॥ अर्थ-उस प्रारंभकालके आगेके समयसे लेकर क्षायिक सम्यक्त्वके ग्रहणसमयसे पहले निष्ठापक होता है सो जिसजगह प्रारंभ किया था वहां ही तथा सौधर्मादि वर्ग अथवा भोगभूमिया मनुष्य तिर्यचमें अथवा धर्मा नामकी नरकपृथ्वीमें भी निष्ठापक होता है क्योंकि बद्धायु कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि मरकर चारों गतियोंमें उत्पन्न होता है वहां निष्ठापन करता है ॥ १११ ॥
पुवं तियरणविहिणा अणं खु अणियट्टिकरणचरिमम्हि ।। उदयावलिबाहिरगं ठिदि विसंजोजदे णियमा ॥ ११२॥