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लब्धिसारः।
पूर्व त्रिकरणविधिना अनंतं खलु अनिवृत्तिकरणचरमे । - उदयावलिबाह्य स्थितिं विसंयोजयति नियमात् ॥ ११२ ॥ अर्थ-दर्शनमोहकी क्षपणाके पहले तीनकरण विधानसे अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभके उदयावलिसे बाह्य सब स्थिति निषेकोंको अनिवृत्ति करणके अन्तसमयमें . नियमसे विसंयोजन करता है अर्थात् बारह कषाय नव नोकषायरूप परिणमाता है॥११२॥
अणियहीअद्धाए अणस्स चत्तारि होति पवाणि । सायरलक्खपुधत्तं पल्लं दूरावकिट्टि उच्छिटुं॥ ११३॥
अनिवृत्त्यद्धायां अनंतस्य चत्वारि भवंति पर्वाणि ।
सागरलक्षपृथक्त्वं पल्यं दूरापकृष्टिरुच्छिष्टम् ॥ ११३ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके कालमें अनन्तानुबन्धीके स्थितिसत्त्वके चार पर्व ( विभाग) होते हैं अर्थात् स्थिति घटनेकी मर्यादाकर चार भाग होते हैं । उनमें से पहले समय पृथक्त्वलाख सागर प्रमाण स्थितिसत्त्व रहता है दूसरा संख्यात हजार स्थितिखण्ड होनेपर पल्यमात्र स्थितिसत्त्व रहता है तीसरा दूरापकृष्टि अर्थात् पल्यका असंख्यातवां भागमात्र स्थितिसत्त्व रहता है और उच्छिष्टावलि अर्थात् आवलिमात्र स्थिति सत्त्व वाकी रहता है वह चौथापर्व है ॥ ११३ ॥
पल्लस्स संखभागो संखा भागा असंखगा भागा। ठिदिखंडा होति कमे अणस्स पवादु पचोत्ति ॥ ११४ ॥
पल्यस्य संख्यभागः संख्या भागा असंख्यका भागाः ।
स्थितिखंडा भवंति कमेण अनंतस्य पर्वात् पर्वान्तं ॥ ११४ ॥ अर्थ-अनन्तानुबन्धीके स्थितिसत्त्वके एक पर्वसे दूसरे पर्वतक क्रमसे स्थिति कांडक (खण्ड ) होते हैं । उनका आयाम ( काल ) क्रमसे पल्यका संख्यातवां भाग, पल्यके संख्यात बहुभाग और पत्यके असंख्यात बहुभागमात्र हैं ॥ ११४ ॥
अणियहीसंखेज्जाभागेसु गदेसु अणगठिदिसंतो। उदधिसहस्सं तत्तो वियले य समं तु पल्लादी ॥ ११५ ॥ ____अनिवृत्तिसंख्यातभागेषु गतेषु अनंतगस्थितिसत्त्वं ।
उदधिसहस्रं ततो विकले च समं तु पल्यादि ॥ ११५ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके कालको संख्यातका भाग देनेसे प्राप्त बहुभागद्रव्य वितीत होनेपर एक भाग बाकी रहते अनन्तानुबन्धीका स्थितिसत्त्व कहीं हजारसागरमात्र पीछे विकलेंद्रीके बन्धसमान पल्य और आदिसे दूरापकृष्टि और आवलिमात्र होता है ॥ ११५॥
ल. सा. ५