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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
उवहसहरुसं तु सयं पण्णं पणवीसमेक्कयं चेव । वियलचउक्के एगे मिच्छुक्कस्सट्ठिदी होदि ॥ ११६ ॥ उदधिसहस्रं तु शतं पंचाशत् पंचविंशतिरेकं चैव विकलचतुष्के एकस्मिन् मिथ्योत्कृष्टस्थितिर्भवति ॥ ११६ ॥
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अर्थ - विकलचार यानी असंज्ञी पञ्चेन्द्री चौइन्द्री ते इन्द्री दो इन्द्री और एक अर्थात् एकेंद्री इनके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे हजार सागर, सौ सागर, पचास सागर, पच्चीस सागर और एकसागर काल प्रमाण होता है । इन्हींके समान स्थितिसत्त्व अनन्तानुबन्धीका कहीं होता है ॥ ११६ ॥
अंतो मुहुत्तकालं विस्समिय पुणोवि तिकरणं किरिय । अणिट्टीए मिच्छं मिस्सं सम्मं कमेण णासेइ ॥ ११७ ॥
अंतर्मुहूर्तकालं विश्राम्य पुनरपि त्रिकरणं कृत्वा ।
अनिवृत्तौ मिथ्यं मिश्रं सम्यक्त्वं क्रमेण नाशयति ॥ ११७ ॥
अर्थ — अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करनेके बाद अन्तर्मुहूर्त कालतक विश्राम लेकर उसके वाद फिर तीनकरणोंको करता हुआ अनिवृत्तिकरणकालमें मिथ्यात्व मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीयको क्रमसे नाश करता है ॥ ११७ ॥
अणिकरणपढमे दंसणमोहस्स सेसगाण ठिदी । सायरलक्खपुधत्तं कोडीलक्खगपुधत्तं च ॥ ११८ ॥ अनिवृत्तिकरणप्रथमे दर्शनमोहस्य शेषकानां स्थितिः । सागरलक्षपृथक्त्वं कोटिलक्षक पृथक्त्वं च ॥ ११८ ॥
अर्थ — अनिवृत्तिकरण के पहले समय में दर्शनमोहका स्थितिसत्त्व पृथक्त्व लक्षसागर प्रमाण है और शेषकमका स्थितिसत्त्व पृथक्त्व लक्षकोटि सागर प्रमाण है । यहां पृथक्त्व नाम बहुतका है इसलिये कोड़ाकोड़ीके नीचे अन्तःको । कोड़ि जानना ॥ ११८ ॥ अमणं ठिदिसत्तादो प्रधत्तमेत्ते पुधत्तमेत्ते य ।
ठिदिखंडये हवंति हु चउ ति वि एयक्ख पल्लठिदी ॥ ११९ ॥ अमनःस्थितिसत्त्वतः पृथक्त्वमात्रं पृथक्त्वमात्रं च ।
स्थितिकांडके भवंति हि चतुस्त्रिं द्वि एकाक्षे पल्यस्थितिः ॥
११९॥ अर्थ-दर्शनमोहनी की पृथक्त्वलक्षसागर प्रमाण स्थिति प्रथमसमय में संभव है उससे परे संख्यात हजार स्थितिकांडक होनेपर असंज्ञीके बन्धसमान हजार सागर स्थितिसत्त्व रहता है उसके बाद बहुत बहुत स्थिति कांडक ( खण्ड ) होनेपर क्रमसे चौ इन्द्री ते इन्द्री दो इन्द्री केंद्रके स्थितिबन्ध के समान सौ सागर आदि स्थितिसत्त्व होता है । उसके