________________
लब्धिसारः।
सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि । सो चेव हवदि मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी ॥ १०६ ॥ सम्यक्त्वोदये चलमलिनमगाढं श्रद्दधाति तत्त्वमर्थम् । श्रद्धधाति असद्भावमजानन् गुरुनियोगात् ॥ १०५॥ सूत्रतस्तं सम्यक् दर्शयंतं यदा न श्रद्दधाति ।
स चैव भवति मिथ्यादृष्टिर्जीवः ततः प्रभृति ॥ १०६ ॥ अर्थ-उपशम सम्यक्त्वका काल पूर्ण हुए वाद नियमसे तीनोंमें एक दर्शन मोहकी प्रकृतिका उदय होता है। वहां पर सम्यक्त्वमोहनीके उदय होनेपर यह जीव वेदक (क्षयोपशमिक ) सम्यग्दृष्टी होता है । वह चल मलिन अगाढरूप तत्त्वार्थकी श्रद्धा करता है अर्थात् सम्यक्त्व मोहनीयके उदयसे श्रद्धानमें चलपना वा मैलापना वा शिथिलपना होता है । और वह जीव आप तो विशेष नहीं जानता हुआ अज्ञात गुरुके निमित्तसे असत्य श्रद्धान भी कर लेता है परंतु यह सर्वज्ञकी आज्ञा इसीतरह है ऐसा समझता है । इसीलिये सम्यग्दृष्टि है । तथा जो कभी कोई जानकार गुरू जिनसूत्रसे सम्यक् स्वरूप दिखलावे उसपर भी हठ वगैरःसे श्रद्धान न करे तो उसी कालसे लेकर वह मिथ्यादृष्टि होजाता है ॥ १०५। १०६ ॥
मिस्सुदये संमिस्सं दहिगुडमिस्सं व तत्तमियरेण । सद्दहदि एकसमये मरणे मिच्छो व अयदो वा ॥ १०७॥ .. मिश्रोदये संमिश्रं दधिगुडमिश्रं व तत्त्वमितरेण ।
श्रद्दधात्येकसमये मरणे मिथ्यो वा असंयतो वा ॥ १०७ ॥ अर्थ-मिश्र यानी सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति उसके उदय होनेसे जीव मिश्रगुणस्थानी होता है । वह एकसमयमें तत्त्व और अतत्त्वके मेलरूप श्रद्धान करता है । जैसे दही गुड़ मिलानेसे अन्य ही खादरूप होजाता है उसीतरह यहां सत्य असत्य श्रद्धान मिला हुआ जानना । यहांपर मरण होनेसे पहले ही नियमसे मिथ्यादृष्टि या असंयत होजाता है क्योंकि मिश्रमें मरण नहीं है ॥ १०७ ॥
मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणं होदि । ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जुरिदो ॥ १०८ ॥ मिथ्यात्वं वेदयन् जीवो विपरीतदर्शनो भवति ।
न च धर्म रोचते हि मधुरं खलु रसं यथा ज्वरितः ॥ १०८ ॥ अर्थ-मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयको अनुभवता हुआ जीव मिथ्यादृष्टि होता है वह विपरीत श्रद्धानी होता है । जैसे ज्वरवालेको मीठा नहीं रुचता उसीतरह उसको धर्म