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लब्धिसारः ।
तट्ठाणे ठिदिसंतो आदिमसम्मेण देससयलजमं । पडिवज्जमाणगस्स संखेजगुणेण हीणकमो ॥ ९८ ॥
तत्स्थाने स्थितिसत्त्वं आदिमसम्येन देशसकलयमं । प्रतिपद्यमानस्य संख्येयगुणेन हीनक्रमः ॥ ९८ ॥
अर्थ — उसी अन्तरायामके प्रथमसमयरूप स्थानमें जो देशसंयमसहित प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करे तो उसके स्थितिसत्त्व पूर्वक हे हुए से संख्यातगुणा कम होता है । और जो सकलसंयम सहित प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त होवे उसके स्थितिसत्त्व उससे भी संख्यातगुणा कम होता है । क्योंकि अनन्तगुणी विशुद्धताके विशेषसे स्थितिखण्डायाम संख्यातगुणा होता है उनकर घटाई हुई बांकी स्थिति संख्यातवें भाग संभवती है ॥ ९८ ॥
उवसामगो य सद्यो णिवाघादो तहा णिरासाणो । उवसंते भजियो णिरासओ चेव खीणम्हि ॥ ९९ ॥ उपशामकश्च सर्वः निर्व्याघातस्तथा निरासानः ।
उपशांते भजितव्यों निरासानश्चैव क्षीणे ॥ ९९ ॥
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अर्थ-दर्शनमोहका उपशम करनेवाले सभी जीव मरण रहित हैं और सासादनको प्राप्त नहीं होते । और उपशम हुए बाद उपशम सम्यक्त्वी हुए कोई सासादन गुणस्थान प्राप्त नहीं होते कोई होते हैं । उपशम सम्यक्त्वका काल समाप्त होने वाद सासादन नहीं होता वहां नियमसे दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियों मेंसे एकका उदय होता है ॥ ९९ ॥ उवसमसम्मत्तद्धा छावलिमेत्तो ढुं समयमेत्तोति । अवसिद्धे आसाणो अणअण्णदरुदयदो होदि ॥ १०० ॥ उपशमसम्यक्त्वाद्धा षडावलिमात्रस्तु समयमात्र इति । अवसिद्धे आसादनः अनान्यतमोदयतो भवति ॥ १०० ॥
अर्थ- — उपशम सम्यक्त्वके कालमें उत्कृष्ट छह आवलि तथा जघन्य एक समय शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी क्रोधादिमें से किसी एकका उदय होनेसे सम्यक्त्वको विनाशकर जबतक मिथ्यात्वको प्राप्त न होवे उसके बीच के कालमें सासादन सम्यक्त्व होता है ॥ १०० ॥ सायारे बटुवो विगो मज्झिमो य भजणिजो ।
जोगे अण्णदरम्हि दु जहण्णए तेउलेस्साए ॥ १०१ ॥ साकारे प्रस्थापको निष्ठापकः मध्यमश्च भजनीयः ।
योगे अन्यतरस्मिन् तु जघन्यके तेजोलेश्यायाः ॥ १०१ ॥
अर्थ — साकार अर्थात् ज्ञानोपयोग के होनेपर ही यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्रारंभ करता है और उसको संपूर्ण करनेवाला और मध्य अवस्थावर्ती जीवका अनियम है