________________
२७
लब्धिसारः। वह क्रमसे द्रव्य अपेक्षा असंख्यातवां भागमात्र और अनुभाग अपेक्षा अनन्तवां भागमात्र जानना ॥ ९०॥
पढमादो गुणसंकमचरिमोत्ति य सम्म मिस्ससंमिस्से । अहिगदिणाऽसंखगुणो विज्झादो संकमो तत्तो ॥ ९१॥ प्रथमात् गुणसंक्रमचरम इति च सम्यगू मिश्रसंमिश्रे ।
अहिगतिनासंख्यगुणो विध्यातः संक्रमः ततः ॥ ९१ ॥ अर्थ-गुणसंक्रमणकालके प्रथमसमयसे लेकर अन्तसमयतक समय २ सर्पकी चालकी तरह असंख्यात गुणा क्रम लिए मिथ्यात्वका द्रव्य है वह सम्यक्त्व मिश्रप्रकृतिरूप परिणमता है। यहां विध्यातका अर्थ मन्द है सो यहांपर विशुद्धता मन्द होनेसे सूच्यगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण जो विध्यातसंक्रम उसका भागदेनेसे जो प्रमाण आवै उतने द्रव्यको सम्यक्त्व मोहनीय मिश्रमोहनीयरूप परिणमाता है ॥ ९१ ॥
बिदियकरणादिमादो गुणसंकमपूरणस्स कालोत्ति । वोच्छं रसखंडुक्कीरणकालादीणमप्प बहु ॥ ९२ ॥ द्वितीयकरणादिमात् गुणसंक्रमपूरणस्य काल इति ।
वक्ष्ये रसखंडोत्करणकालादीनामल्पं बहु ॥ ९२ ॥ अर्थ-दूसरे अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर गुणसंक्रमकालके पूर्णपनेतक संभवते अनुभागकांडक उत्करणकालादि हैं उनका अल्पबहुत्व आगे कहेंगे ॥ ९२ ॥
अंतिमरसखंडुक्कीरणकालादो दु पढमओ अहिओ। तत्तो संखेजगुणो चरिमहिदिखंडहदिकालो ॥९३॥ अंतिमरसखंडोत्करणकालतस्तु प्रथमो अधिकः ।
ततः संख्यातगुणः चरमस्थितिखंडहतिकालः ॥ ९३ ॥ अर्थ-अन्तसमयमें संभव ऐसा अनुभागखण्डोत्करणकाल है वह थोड़ा है उससे अपूकरणके प्रथमसमयमें आरंभ होनेवाला अनुभागकांडकोत्करणकाल है उससे संख्यातगुणा अन्तका स्थितिकांडकोत्करणकाल है और स्थितिबन्धापसरण काल भी इतना ही है क्योंकि ये दोनों आपसमें समान हैं ॥ ९३ ॥
तत्तो पढमो अहिओ पूरणगुणसेढिसेसपढमठिदी। संखेण य गुणियकमा उवसमगद्धा विसेसहिया ॥ ९४ ॥ ततः प्रथम अधिकः पूरणगुणश्रेणिशेषप्रथमस्थितिः। संख्येन च गुणितक्रमा उपशमकाद्धा विशेषाधिकाः ॥ ९४ ॥