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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । है । और यहां एक समय अधिक आवलिकर सहित जो आवाधाकाल उससे हीन जो उत्कृष्ट कर्मोंकी स्थिति उस प्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप जानना ॥ ६२ । ६३ । ६४ ॥
अहवावलिगदवरठिदिपढमणिसेगे वरस्स बंधस्स । विदियणिसेगप्पहुदिसु णिक्खित्ते जेट्टणिक्खेओ ॥६५॥
अथवावलिगतवरस्थितिप्रथमनिषेके वरस्य बंधस्य ।
द्वितीयनिषेकप्रभृतिषु निक्षिप्ते ज्येष्ठनिक्षेपः ॥ ६५ ॥ अर्थ-अथवा किसी आचार्यके मतसे निक्षेप ऐसा माना गया है कि बांधी हुई उत्कृष्ट स्थितिकी बन्धावलिको छोड़ उसके वाद उसके प्रथमनिषेकका उत्कर्षण कर उसके द्रव्यको उस उत्कर्षण करनेके समयमें बन्धे उत्कृष्ट स्थिति लिये हुए समयप्रबद्धके द्वितीयनिषेकको आदि लेकर अंतमें अतिस्थापनावलीमात्रनिकोंको छोड़ सब निषेकोंमें निक्षेपण पण किया। वहांपर एक समय सहित एक आवलि और बन्धीस्थितिका आबाधाकाल इन दोनोंकर हीन उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप होता है ॥ ६५ ॥
उकस्सद्विदिवंधे आवाहागा ससमयमावलियं । उदरियणणिसेगेसुक्कट्ठसु अवरमावलियं ॥६६॥ उत्कृष्टस्थितिबंधे आबाधाग्रा ससमयामावलिकाम् ।
उदीर्यमाणनिषेकेषत्कर्षेषु अवरमावलिकम् ॥ ६६ ॥ अर्थ-उत्कृष्ट स्थिति लिये हुए जो उत्कर्षण करनेके समयमें बन्धा समयप्रबद्ध है उसकी आबाधाकालके अन्तसमयसे लेकर एक समय अधिक आवलि मात्र समय पहले उदय आने योग्य जो सब सत्ताका निषेक उसके उत्कर्षण करनेपर आवलिमात्र जघन्य अतिस्थापन होता है ॥ ६६ ॥
उदरिय तदो विदीयावलिपढमुक्कट्टणे वरं हेट्ठा। अइटावणमाबाहा समयजुदावलियपरिहीणा ॥ ६७॥ उदीर्य ततो द्वितीयावलिप्रथमोत्कर्षणे वरमधस्तना।
अतिस्थापना आबाधा समययुतावलिकपरिहीना ॥ ६७ ॥ अर्थ-उसके बाद उससे पहले उदय आने योग्य ऐसा दूसरा कोई सत्तारूप समयप्रबद्ध संबन्धी द्वितीय आवलिका प्रथम निषेक उसके उत्कर्षण होनेपर नीचे एक समय अधिक आवलिकर हीन आबाधाकालके प्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापन होता है ॥ ६७ ॥ अब प्रसंग पाकर गुणश्रेणीका विधान करते हैं;
उदयाणमावलिम्हि य उभयाणं बाहरम्मि खिवणटुं। लोयाणमसंखेजो कमसो उक्कट्टणो हारो ॥ ६८॥