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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
उक्कस्सट्ठिदिबंधो समयजुदावलिदुगेण परिहीणो । उदिम्मि चरमे ठिदिम्मि उक्कस्सणिक्खेवो ॥ ५८ ॥ उत्कृष्टस्थितिबंधः समययुतावलिद्विकेन परिहीनः ।
उत्कृष्टस्थितौ चरमे स्थितौ उत्कृष्टनिक्षेपः ॥ ५८ ॥
अर्थ — स्थिति के अंत निषेकके द्रव्यको अपकर्षणकर नीचले निषेकों में निक्षेपण करनेसे उस अंत निषेकके नीचे आवलीमात्र निषेक तो अतिस्थापना स्वरूप है और समय अधिक दो आवलिकर हीन उत्कृष्ट स्थितिमात्र निक्षेप होता है । यह उत्कृष्टनिक्षेप जानना ॥ ५८ ॥ उस्सदि बंधि मुहुत्तअंतेण सुज्झमाणेण ।
siriser घादे ह य चरिमस्स फालिस्स ॥ ५९ ॥ चरिमणिसेउकट्ठे जे मदित्थावणं इदं होदि । समयजुदंतोकोडीकोडि विणुक्कस्सकम्मदिदी ॥ ६० ॥ उत्कृष्टस्थितिं बंधयित्वा मुहूर्तान्तः शुद्ध्यता ।
एककांडकेन घाते तस्मिन् च चरमस्य फालेः ।। ५९ ।। चरम निषेकोत्कर्षे ज्येष्ठमतिस्थापनमिदं भवति ।
समययुतान्तःकोटीकोटिं विना उत्कृष्टकर्मस्थितिः ॥ ६० ॥
अर्थ —- कोई जीव उत्कृष्टस्थिति बांधकर पीछे क्षयोपशमलब्धि से विशुद्ध हुआ । तब बन्धी हुई स्थितिमें आबाधारूप बंधावलीके वीतजानेपर एक अंतर्मुहूर्तकाल से स्थितिकांडकका घात किया उस जगह जो अंतकी फालिमें स्थितिके अंतनिषेकके द्रव्यको ग्रहणकर अवशेष रही हुई स्थितिमें दिया । वहां एकसमय अधिक अंतः कोड़ा कोड़ी सागरकर हीन उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापन होता है ॥ भावार्थ - जैसे अंक संदृष्टि से हजार समयकी स्थितिमें कांडकघातकर सौ समयकी स्थिति रक्खी । उसजगह निषेकके द्रव्यको आदिके सौसमय संबंधी निषेकोंमें दिया वहांपर आठसौ निन्यानवे समयमात्र उत्कृष्ट अतिस्थापन होता है ॥ ५९ ॥ ६० ॥
हजारवें समय के
सत्तग्गट्ठिदिबंधो आदिठिदुकट्टणे जहणेण ।
आवलिअसंखभागं तेत्तियमेत्तेव णिक्खिवदि ॥ ६१ ॥
सत्ताग्रस्थितिबन्ध आदिस्थित्युत्कर्षणे जघन्येन ।
आवल्यसंख्यभागं तावन्मात्रमेव निक्षिपति ॥ ६१ ॥
१ यहां बंधके वाद आवलिकालतक तो उदीरणा होती नहीं इसलिये एक आवलि तो आबाधामें गई एक आवली अतिस्थापनारूप रही और अंत निषेकका द्रव्य ग्रहण नहीं किया इसी कारण उत्कृष्टस्थितिमें दो आवलि एक समय कमती किया है ।