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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । चतुर्गतिमिथ्यः संज्ञी पूर्णः गर्भजो विशुद्धः साकारः ।
प्रथमोपशमं स गृह्णाति पंचमवरलब्धिचरमे ॥ २ ॥ अर्थ-चारों गतिवाला अनादि या सादि मिथ्यादृष्टि संज्ञी ( मनसहित ) पर्याप्त गर्भज जन्मवाला मंदक्रोधादिफषायरूप विशुद्धपनेका धारक गुणदोषविचाररूप साकार ज्ञानोपयोगवाला जो जीव है वही पांचवीं लब्धिके अनिवृत्तकरण भागके अंतसमयमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करता है ॥ २॥ ___ आगे प्रथमोपशम सम्यक्त्व होनेसे पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें पांच लब्धियां होती हैं उनके नाम कहते हैं
खयउवसमियविसोही देसणपाउग्गकरणलद्धी य । चत्तारि वि सामण्णा करणं सम्मत्तचारित्ते ॥३॥ क्षयोपशमविशद्धी देशनाप्रायोग्यकरणलब्धयश्च ।
चतस्रोपि सामान्याः करणं सम्यक्त्वचारित्रे ॥ ३ ॥ अर्थ-क्षयोपशम १ विशुद्धि २ देशना ३ प्रायोग्य ४ करण ५- ये पांच लब्धियां हैं। उनमेंसे पहली चार तो साधारण हैं अर्थात् भव्यजीव और अभव्यजीव दोनोंके होती हैं । लेकिन पांचवीं करणलब्धि सम्यक्त्व और चारित्रकी तरफ झुके हुए भव्यजीवके ही होती है ॥ ३ ॥ • आगे इन पांचोंमेंसे पहली क्षयोपशमलब्धिका खरूप कहते हैं:। कम्ममलपडलसत्ती पडिसमयमणंतगुणविहीणकमा।
होदूणुदीरदि जदा तदा खओवसमलद्धी दु॥४॥ ... कर्ममलपटलशक्तिः प्रतिसमयमनंतगुणविहीनक्रमा ।
भूत्वा उदीर्यते यदा तदा क्षयोपशमलब्धिस्तु ॥ ४ ॥ अर्थ-कर्मों में मैलरूप जो अशुभ ज्ञानावरणादि समूह उनका अनुभाग जिस कालमें समय समय अनंतगुणा क्रमसे घटता हुआ उदयको प्राप्त होता है उस कालमें क्षयोपशम लब्धि होती है ॥ ४ ॥ आगे विशुद्धिलब्धिका स्वरूप कहते हैं;
आदिमलद्धिभवो जो भावो जीवस्स सादपहुदीणं । सत्थाणं पयडीणं बंधणजोगो विसुद्धलद्धी सो ॥५॥
आदिमलब्धिभवो यः भावो जीवस्य सातप्रभृतीनाम् । .. शस्तानां प्रकृतीनां बंधनयोग्यो विशुद्धिलब्धिः सः॥५॥
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