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लब्धिसारः। एतैर्विहीनानां त्रिमहादंडकेषूक्तानाम् ।
एकषष्ठिप्रमाणानामनुत्कृष्टप्रदेशबंधनं करोति ॥ २६ ॥ अर्थ-इनसे हीन जो तीन महादंडकों ( स्थानों ) में कहीं गई ऐसी प्रकृतियों में इकसठ प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है ॥ २६॥
पढमे सवे बिदिये पण तिदिये चउ कमा अपुणरुत्ता । इदि पयडीणमसीदी तिदंडएसुवि अपुणरुत्ता ॥ २७ ॥
प्रथमे सर्वे द्वितीये पंच तृतीये चतुः क्रमादपुनरुक्ताः ।
इति प्रकृतीनामशीतिः त्रिदंडकेष्वपि अपुनरुक्ताः ॥ २७ ॥ अर्थ-मनुष्यतिर्यंचके बंध योग्य जो पहलादंडक ( स्थान ) उसमें सब ( इकहत्तर) ही अपुनरुक्त हैं भवनत्रिकादिके योग्य दूसरे दंडकमें मनुष्यचतुष्क वज्रऋषभनाराच-ये पांच अपुनरुक्त हैं अन्यप्रकृतियां पहले दंडकमें कहीं ही थीं। और सातवीं पृथ्वीवालोंके योग्य तीसरे दंडकमें तिर्यंचद्विक नीचगोत्र उद्योत-ये चार अपुनरुक्त हैं। ऐसे तीनों दंडकोंमें अपुनरुक्त अस्सी प्रकृतियां जाननी ॥ २७ ॥ ऐसे बंध कहा। अब उसी जीवके उदय कहते हैं:
उदये चउदसघादी णिद्दा पयलाणमेकदरगं तु । मोहे दस सिय णामे वचि ठाणं सेसगे सजोगेकं ॥२८॥
उदये चतुर्दश घातिनः निद्रा प्रचलानामेकतरकं तु ।
मोहे दश स्यात् नामनि वचःस्थानं शेषके सयोग्येकं ॥ २८ ॥ अर्थ-प्रथमसम्यक्त्वके सन्मुख जीवके नरकगतिमें ज्ञानावरणकी पांच दर्शनावरणकी आदिकी चार अंतरायकी पांच-ऐसे चौदह तथा मोहनीयकी दस वा नौ वा आठ, आयुकी एक नरकायु नामकर्मकी भाषापर्याप्तिकालमें उदययोग्य उनतीस, वेदनीयकी एक गोत्रकी एक नीचगोत्र-ऐसे इन प्रकृतियोंका उदय है ॥ २८ ॥ यहांपर मोहनीय आदिकी प्रकृ. तियां बदलेनेसे जो भंग ( भेद ) होते हैं उनका कथन गोमटसारके कर्मकांडके स्थानसमुकीर्तन अधिकारमें है वहांसे समझलेना । --
उदइलाणं उदये पत्तेक्कठिदिस्स वेदगो होदि । विचउट्ठाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरसभुत्ती ॥ २९ ॥ उदयवतामुदये प्राप्ते एकस्थितिकस्य वेदको भवति ।
द्विचतुःस्थानमशस्ते शस्ते उदीयमानरसभुक्तिः ॥ २९ ॥ अर्थ-उदयवाली प्रकृतियोंका उदय होनेकी अपेक्षा एक स्थिति जो उदयको प्राप्त
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