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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । तत् सुरचतुष्कहीनं नरचतुर्वअयुतं प्रकृतिपरिमाणं ।
सुरषटूपृथिवीमिथ्याः सिद्धापसरणा हि बनंति ॥ २२ ॥ अर्थ-उन इकहत्तरमेंसे देवचतुष्क घटानेसे तथा मनुष्यचतुष्क वज्रऋषभ नाराच मिलानेसे बहत्तरि प्रकृतियोंको जिनके बंधापसरणसिद्ध हुए हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि देव वा छह पृथिवियोंके नारकी बांधते हैं ॥ २२॥
तं णरदुगुच्चहीणं तिरियदुणीचजुद पयडिपरिमाणं । उजोवेण जुदं वा सत्तमखिदिगा हु बंधति ॥ २३ ॥ तत् नरद्विकोच्चहीनं तिर्यग्द्विकं नीचयुतं प्रकृतिपरिमाणं ।
उद्योतेन युतं वा सप्तमक्षितिका हि बध्नति ॥ २३ ॥ अर्थ-उन बहत्तरमेंसे मनुष्यद्विक उच्चगोत्रके विना और तिर्यंचद्विक नीचगोत्रसहित बहत्तर अथवा उद्योतसहित तेहत्तर प्रकृतियोंको सांतवीं नरकपृथ्वीवाले बांधते हैं ।। २३॥ इस तरह प्रकृतिबंध अबंधका विभाग कहा है।
अंतोकोडाकोडीठिदं असत्थाण सत्थगाणं च । बि चउहाणरसं च य बंधाणं बंधणं कुणइ ॥ २४ ॥ अंतःकोटाकोटिस्थितिं अशस्तानां शस्तकानां च ।
अपि चतुःस्थानरसं च च बंधानां बंधनं करोति ॥ २४ ॥ अर्थ-प्रथमसम्यक्त्वके सन्मुख चारोंगतिवाला मिथ्यादृष्टि जीव बध्यमानप्रकृतियोंके चौंतीस बंधापसरणस्थानोंमेंसे एक एक स्थानके प्रति पृथक्त्व सौसागर घटता क्रम लिये हुए अंतःकोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण स्थिति बांधता है । और प्रशस्तप्रकृतियोंका चार स्थानको प्राप्त समय २ अनंतगुणा बढता बांधता है ॥ २४ ॥
मिच्छणथीणति सुरचउ समवजपसत्थगमणसुभगतियं । णीचुक्कस्सपदेसमणुक्कस्सं वा पबंधदि हु॥ २५ ॥ मिथ्यानस्त्यानत्रिकं सुरचतुः समवनप्रशस्तगमनसुभगत्रिकं ।
नीचोत्कृष्टप्रदेशमनुत्कृष्टं वा प्रबध्नाति हि ॥ २५ ॥ अर्थ-यह जीव मिथ्यात्व अनंतानुबंधीचतुष्क स्त्यानगृद्धित्रिक देवचतुष्क समचतुरस्र वज्रऋषभनाराच प्रशस्तविहायोगति सुभगादि तीन नीचगोत्र-इन उन्नीसप्रकृतियोंका उत्कृष्ट वा अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है ॥ २५॥
एदेहिं विहीणाणं तिण्णिमहादंडएसु उत्ताणं । एकढिपमाणाणमणुक्कस्सपदेसबंधणं कुणइ ॥ २६ ॥
१ मनुष्य चतुष्कसे मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूवीं औदारिक शरीर औदारिक अंगोपांग जानना।