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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालाथाम् । हुआ एक निषेक उसका ही भोगनेवाला वह जीव होता है । और अप्रशस्त प्रकृतियोंका द्विस्थानरूप तथा शुभ प्रकृतियोंका चारस्थानरूप अनुभागका भोगना उसके होता है॥२९॥
अजहण्णमणुक्कस्सपदेसमणुभवदि सोदयाणं तु । उदयिल्लाणं पयडिचउक्कण्णमुदीरगो होदि ॥३०॥ अजघन्यमनुत्कृष्टप्रदेशमनुभवति सोदयानां तु ।।
उदयवतां प्रकृतिचतुष्काणामुदीरको भवति ॥ ३०॥ अर्थ-उदयरूप प्रकृतियोंका अजघन्य वा अनुत्कृष्ट प्रदेशको भोगता है । यहां जघन्य वा उत्कृष्ट परमाणुओंका उदय नहीं है । और प्रकृति प्रदेश स्थिति अनुभाग जो उदयरूप कहे हैं उनका ही यह जीव उदीरणा करनेवाला होता है । क्योंकि जिसके जिन प्रकृतियोंका उदय उसके उन्हींकी उदीरणा भी संभवती है ॥ ३० ॥ इसप्रकार उदय और उदीरणा कहे हैं। अब सत्त्व कहते हैं;
दुति आउ तित्थहारचउक्कणा सम्मगेण हीणा वा। मिस्सेणूणा वा वि य सवे पयडी हवे सत्तं ॥३१॥ द्वित्रि आयुः तीर्थाहारचतुष्कानां सम्यक्त्वेन हीना वा।
मिश्रेणोना वापि च सर्वेषां प्रकृतीनां भवेत् सत्त्वम् ॥ ३१ ॥ अर्थ-सम्यक्त्वके सन्मुख अनादि मिथ्यादृष्टिके अबद्धायुके तो भुज्यमान बिना तीन आयु, तीर्थकर, आहारकचतुष्क, सम्यग्मोहनी, मिश्रमोहनी-इन दसके बिना एकसौ अड़तीसका सत्त्व है । उसी बद्धायुके एक बध्यमान आयु सहित एकसौ उनतालीसका सत्त्व है । और सम्यक्त्वके सन्मुख सादि मिथ्यादृष्टि अबद्धायुके तो भुज्यमान विना तीन आयु, तीर्थकर आहारकचतुष्क-इन आठके विना एकसौ चालीसका सत्त्व है । सम्यक्त्वमोहनीकी उद्वेलना होनेपर एकसौ उनतालीसका सत्त्व है, मिश्रमोहनीयकी उद्वेलना होनेसे एकसौ अड़तीसका सत्त्व होता है । तथा उसी बद्धायुके बध्यमान आयुसहित एकसौ इक. तालीस एकसौ चालीस एकसौ उनतालीसका सत्त्व होता है क्योंकि आहारकचतुष्टयकी उद्वेलना हुए विना तीर्थकर सत्तावाला जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वके सन्मुख नहीं होता॥३१॥
अजहण्णमणुक्कस्सं ठिदीतियं होदि सत्तपयडीणं । एवं पयडिचउक्कं बंधादिसु होदि पत्तेयं ॥३२॥
अजघन्यमनुत्कृष्टं स्थितित्रिकं भवति सत्त्वप्रकृतीनाम् ।
एवं प्रकृतिचतुष्कं बंधादिषु भवति प्रत्येकम् ॥ ३२ ॥ अर्थ-उन सत्तारूप प्रकृतियोंके स्थिति अनुभाग प्रदेश हैं वे अजघन्य अनुत्कृष्ट हैं। यहां पर जघन्य वा उत्कृष्ट स्थिति अनुभाग प्रदेशका सत्त्व नहीं संभवता । इसप्रकार प्रकृति