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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । - अथिरसुभग जस अरदी सोयअसादे य होंति चोतीसा। बंधोसरणट्ठाणा भवाभवेसु सामण्णा ॥ १५ ॥
अस्थिरसुभगयशः अरतिः शोकासाते च भवंति चतुश्चत्वारिंशत् ।
बंधापसरणस्थानानि भव्याभव्येषु सामान्यानि ॥ १५॥ अर्थ-चौंतीसवां संयोगरूप अस्थिर अशुभ अयश अरति शोक असाताका बंधव्युच्छितिस्थान है । ऐसे ये कहे हुए चौंतीस स्थान भव्य अथवा अभव्यके समान होते हैं ॥११॥
णरतिरियाणं ओघो भवणतिसोहम्मजुगलए बिदियं । तिदियं अट्ठारसमं तेवीसदिमादि दसपदं चरिमं ॥१६॥
नरतिरश्चामोघः भवनत्रिसौधर्मयुगलके द्वितीयं । .. तृतीयं अष्टादशमं त्रयोविंशत्यादि दशपदं चरमम् ॥ १६ ॥
अर्थ-मनुष्य और तिर्यंचोंके सामान्य कहे हुए चौंतीसस्थान पाये जाते हैं अर्थात् उनके बंधयोग्य एकसौ सत्रह प्रकृतियोंमेंसे चौतीसस्थानोंकर छयालीस प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति होती है । वहां आदिके छहस्थानोंमें नौ अठारवें स्थानमें एकेन्द्रियादि तीन उन्नीसवां आदि वीचके स्थानोंमें दो इंद्री ते इंद्री चौइंद्री ये तीन और तेईसवां आदि बारह स्थानोंमें इकतीस-ऐसे छयालीसकी व्युच्छित्ति होती है शेष इकहत्तरि बंधती हैं। भवनवासी आदि तीनमें सौधर्मवर्ग युगलमें दूसरा तीसरा अठारवां तेईसवेंको आदिले दस
और अंतका चौंतीसवां-ये चौदह स्थान ही संभवते हैं अर्थात् वहां इकतीस प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है, बंधयोग्य एकसौ तीनमें बहत्तरि प्रकृतियों का बंध बाकी रहता है॥१६॥
ते चेव चोदसपदा अट्ठारसमेण हीणया होति । रयणादिपुढविछक्के सणकुमारादिदसकप्पे ॥ १७॥
तानि चैव चतुर्दशपदानि अष्टादशेन हीनानि भवंति ।
रत्नादिपृथिवीष सनत्कुमारादिदशकल्पे ॥ १७ ॥ अर्थ–रत्नप्रभा आदि छह नरककी पृथिवीयोंमें और सानत्कुमार आदि दस वर्गों में पूर्व कहे हुए चौदह स्थान होते हैं लेकिन उनमेंसे अठारवां स्थान नहीं होता । अर्थात् तेरहस्थानोंसे अट्ठाईस प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है वहां बंधयोग्य सौ प्रकृतियोंमेंसे बहत्तरिका बंध शेष रहता है ॥ १७ ॥
ते तेरस बिदिएण य तेवीसदिमेण चावि परिहीणा । आणदकप्पादुवरिमगेवेजंतोत्ति ओसरणा ॥ १८ ॥ तानि त्रयोदश द्वितीयेन च त्रयोविंशतिकेन चापि परिहीनानि । आनतकल्पादुपरि प्रैवेयकांतमित्यपसरणाः ॥ १८ ॥