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गाथा ३८-४१ ]
लब्धिसार सस्थाणमसस्थाणं पठविट्ठाणं रसं च बंधदि हु। पडिसमयमणतेण य गुणभजियकमं तु रसबंधे ।।३८॥ पल्लस्स संखभागं मुहुत्तअंतेण भोसरदि धंधे । संखेजसहस्साणि य अधापवत्तम्मि भोसरणा ॥३६॥ मादिपकरणहार परमदिदिबंधो दु चरिमम्हि । संखेज्जगुणविहीणो ठिदिवंधो होइ णियमेण ॥४०॥ तरिमे ठिदिबंधो आदिमसम्मेण देससयलजमं । पडिबजमाणगस्स वि संखेज्जगुरणेण हीणकमो ॥४१॥
अर्थ-प्रथम ( अधःकरण ) में गुणवे रिंग, गुरगसंक्रमण, स्थितिखण्ड और अनुभागखण्ड नहीं होते, किन्तु प्रतिसमय विशुद्धिमें अनन्तगुणीवृद्धिद्वारा वृद्धिको प्राप्त होता है । प्रशस्तप्रकृतियोंका चतुःस्थानीय (गुड़, खांड, शर्करा और अमृत) अनुभागबन्ध होता और अप्रशस्तप्रकृतियोंका द्विस्थानीय (लता-दारु या निब-कांजीर) अनुभागबन्ध होता है । प्रतिसमय प्रशस्तप्रकृतियोंका अनन्तगुणे क्रम सहित बन्ध होता है और अप्रशस्तप्रकृतियोंके अनन्तवेंभागप्रमाण अनुभागबन्ध होता है। तथा एक-एक अंतर्मुहूर्तके अन्तरालसे पल्यका संख्यातवांभाग घटता हुआ स्थितिबन्ध होता रहता है । अधःप्रवृत्तकरणकाल में संख्यातहजार स्थितिबन्धापसरण होते रहते हैं । अधःप्रवृत्तकरणके आदिमें जो प्रथम स्थितिबन्ध होता है तथा अन्तमें नियमसे उससे संख्यातगुणाहीन स्थितिबन्ध होता है । इस चरम स्थितिबन्धसे देशसंयमसहित प्रथमोपणमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले जीवके स्थितिबन्ध संख्यातगुणाहीन होता है । इसस्थितिबन्धसे सकलसंयमसहित प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवालेके संख्यातगुणाहीन स्थितिवन्ध होता है ।
विशेषार्थ-यद्यपि यह जीव अधःप्रवृत्तकरणकालमें प्रत्येक समय में अनंतगुणी विशुद्धिसे अत्यन्तविशुद्ध होता जाता है तथापि स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डकघातके पोग्य विशुद्धिको प्राप्त नहीं होता है । इसलिए अधःप्रवृत्तकररणभावमें विद्यमान इसके स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकघात नहीं होता' । अधःप्रवृत्तकरणमें स्थितिकाण्डकधात, अनुभागकाण्डकघात, गुणवेणी और गुणसंक्रमण नहीं होता, क्योंकि इन अधः
१. ज. ध पु. १२ पृ. २३२ ।