Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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तथा स०/श्री पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री एवं बालचन्द्र शास्त्री के पूर्ण सहयोग ने प्रगति दो थी। तथा मध्य में डॉ. आ० ने० उपाध्ये भी डॉ. हीरालाल के परम सहयोगी हो गये थे। संघ का व्यापक रूप
उक्त प्रकार से साहसिक एवं विवेकी जैन-जागरण के अग्रदूत पंडित जी ( रा० कु० ) के उपदेशक-विद्यालय के स्नातक स/श्री पं० सुरेशचन्द्र जी, इन्द्रचन्द्र जी, लालबहादुर शास्त्री, धर्मचन्द्र, नारायण प्रसादादि तत्त्वोपदेशक तथा मास्टर रामानन्द, भैयालाल भजनसागर, पं० विनयकुमार, (जीवन-धनदानी) ताराचन्द्र प्रेमी, सुभाषचन्द्रादि भजनोपदेश समाज पर छा गये थे। पंजाब के स्कूलों को पाठ्य पुस्तकों में मुद्रित 'जैनधर्म बौद्धधर्म को शाखा है, हिसार शिक्षा विभाग का 'जैनियों को उच्च जाति में शुमार न करने' का परिपत्र, आदि जैनत्व को अवज्ञाकर प्रवृत्तियाँ भी उनकी दृष्टि से ओझल नहीं रहीं । और इस प्रकार संघ ने भारतीय इतिहास संशोधनादि बौद्धिक कार्यों को अनायास ही किया था। १९३२ में कुड़ची ( वेलगांव-मुबई प्रान्त ) में हुए जैनों के दमन और जिनमूर्तिभंजन के विरुद्ध तो संघ ने जिलाधिकारी को ही नहीं अपितु प्रान्तीय सरकार को भी हिला कर न्याय करने के लिए बाध्य किया था। इसी प्रकार मांडवी (सूरत) उदगीर (हैदराबाद), इन्दौर (होल्करराज्य) में दि० मुनियों के विहार पर लगे सरकारी आदेशों की धज्जियाँ ही नहीं उड़वा दी थीं, अपितु 'भगवान वीर का अचेलक धर्म', 'दिगम्बरत्व एवं जैनमुनि' आदि ट्रैक्ट प्रकाशन करा के शिश्नदेवत्व के रहस्य की प्रविष्ठा भी की थी।
प्राग्वैदिक श्रमणविद्या को पठन-पाठन में लाने के लिए ब्रह्मणत्व के अभेद्य गढ़, तथा प्राच्यअध्ययन के प्रमुख केन्द्र गवर्नमैंट संस्कृत ( क्वीनस् ) कालेज को पंजाब के संस्कृत शिक्षा विभाग के समान जैनदर्शन-सिद्धान्त के पाठ्यक्रम को चलाने के लिए तत्कालीन प्राचार्य डॉ० मंगलदेव शास्त्री के सहयोग से सहमत किया था। जैन विद्या तथा विधा की समस्त प्रवृत्तियों पर स्व० पं० राजेन्द्रकुमार जी अपने परम सहयोगी पुण्य श्लोक बा० दिग्विजय सिंह जी, स्व. पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य, चैनसुखदास-न्यायतीर्थ, अजितकुमार शास्त्री तथा अनेक युवक विद्वानों के साथ संघ के उदय ( १९३१ ) के बाद तीन दशकों तक छाये रहे । तथा संघ को परिवार समझ के कुलपति के समान प्रत्येक साधर्मी की उलझन को अपना समझते थे । तथा सहयोगियों ( लालबहादूर शास्त्री भजनसागर. पथिकजी के अपवयों के निवारक थे। श्रीमानों के जैन-समाज में धीमान्-नेतृत्व तब उजागर हुआ जब कलकत्ता के वीरशासन जयन्ती महोत्सव में उनकी प्रेरणा से 'दि० जैन विद्वत् परिषद्' साकार होकर सैद्धान्तिक विषयों पर अधिकृत वक्ता बनी। जयधवल
मोक्षमार्ग प्रकाश (खड़ी बोली), जैनधर्म, रामचरित, वरांगचरित, ईश्वरमीमांसा, ऋषभदेव, आदि संघ के प्रकाशनों के शिखर पर जयधवला के मणिमयी कलश को रखने के आद्य मंगलाचरण (जयधवलसंपादन) ने ही उक्त भूमिका को बना दिया था। जिसे वे करणानुयोग के सर्वोपरि विद्वान अपने सहाध्यायी पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री की वाणिज्योन्मुखता का निग्रह करके आजीवन जिनवाणी सेवासाधना का सुयोग मिलाकर के कर चुके थे। क्योंकि आधुनिक जैन समाज संघटन के सूत्रधार, परिवार की उदात्त परम्परा के सर्वोपरि निर्वाहक श्रावक-शिरोमणि साहु शान्तिप्रसाद जी ने 'जयधवला' सम्पादन-प्रकाशन को मूर्तिग्रन्थमाला से भी बढ़कर अपना कार्य माना था। तथा एक आकस्मिक-स्थिति और आत्मनिह्नवी स्वभाव के कारण आजीवन अपनी जयधवला-प्रकाशन की आद्य-स्रोतता को अप्रकट ही रखा है। 'श्रेयांसि बहु विघ्नानि' के अनुसार प्रथमखंड के बाद द्वि०