Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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[चारित्तमखवणो
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६ १६३ एक्मेतिएण विहासागंथेण तदियभासगाई विहासिय संपहि चउत्कभासगाहाए जहावसरपत्तमत्थविहासणं कुणमाणो इदमाह
* एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा। ६१६४ सुगमं। * तं जहा। ६१६५ सुगम । * (१६९) उक्कड्डवि जे अंसे से काले किएणु ते पवेसेदि।
__ उक्कड्डिदे च पुव्वं सरिसमसरिसे पवेसेदि ॥ २२२ ॥ $ १६६ जहा ओकड्डणमस्सियण पुचिल्लगाहाए अवयवत्वपरामरसो कदो, तहा चेव एत्थ वि उक्कड्डणासंबघेण कायब्वो; विसेसामावादो। संपहि एसा वि गाहा पुम्मसुत्तमेवेत्ति जाणावणट्ठमिदमाह
* एवं पुच्छासुत्तं ।
६ १६३ इस प्रकार इतने विभाषाग्रन्थके द्वारा तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करके अब चौथी भाष्यगाथाकी यथावसर प्राप्त विभाषा करते हुए इस सूत्रको कहते हैं
* इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं। $ १६४ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे । ६ १६५ यह सूत्र सुगम है।
* (१६९) यह क्षपकजीव जिन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण करता है क्या वह अनन्तर समयमें उन कर्मपरमाणुओंको उदीरणा द्वारा प्रविष्ट करता है ? पूर्व समयमें उत्कर्षित करने पर उनकी उदीरणा करता हुआ सदृशरूपसे प्रविष्ट करता है या असदृशरूपसे प्रविष्ट करता है । ।। २२२ ।।
१६६ जिस प्रकर अपकर्षणका परामर्श किया उसी प्रकार प्रकृतमें भी उत्कर्षणके सम्बन्ध से परामर्शकर लेना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । अब यह गाथा भी पृच्छासूत्र हो है इस बातका ज्ञान करानेके लिये चूणिसूत्रको कहते हैं
* यह पच्छास्त्र है।
१. सरूवेण ना।