Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 216
________________ अजोगकेवलो ] १८३ ९ ३९३ ततोऽन्तर्मुहूर्तमयोगिकेवली भूत्वा शैलेश्यमेष भगवानलेश्यभावेन प्रतिपद्यत इति सूत्रार्थः । किं पुनरिदं शैलेश्यं नाम ? शीलानामीशः शीलेशः, तस्य भावः शैलेश्यं, सकलगुणशीलानामैकाधिपत्यप्रतिलम्भनमित्यर्थः । यद्येवं नारम्भणीयमिदं विशेषणं; भगवत्यर्हत्परमेष्ठिनि सयोग केवल्यवस्थायामेव सकलगुणशीलाधिपत्यस्याविकलस्वरूपेण परिप्राप्तात्मलाभत्वात्, अन्यथा तस्यापरिपूर्णगुणशीलत्वेऽस्मदादिवत्परमेष्ठितानुपपत्तेः इति ? सत्यमेतत् सयोगकेवलिन्यपि परिप्राप्तात्मस्वरूपाशेषगुणनिधाने निष्कलंके परमोपेक्षालक्षणयथाख्यातविहारशुद्धिसंयमस्य परमकाष्ठामधितिष्ठितरतिसकलगुणशीलभारस्याविकलस्वरूपापेक्षणाविर्भाव इत्यभ्युपगमात् । किंतु तत्र योगास्त्रवमात्रसच्चापेक्षया सकलसंवरो निःशेषकर्मनिर्जरैंकफलो न समुत्पन्नः । स पुनरयोगिकेवलिनि निरुद्ध निःशेषास्रवद्वारे निष्प्रतिपक्षस्वरूपेण लब्धात्मलाभः परिस्फुरतीत्यनेनाभिप्रायेण शैलेश्यमत्राभ्यनुज्ञातमिति न कश्चिद्दोषावसरः । अत्रायोगिकेवलिगुणस्थानस्वरूपनिरूपणो गाथासूत्रम् - ६ ३९३ उसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक अयोगिकेवली भगवान् होकर अलेश्यभावसे शैलेश पदको प्राप्त होते हैं यह इस सूत्र का अर्थ है । शंका- यह शैलेशपद क्या है ? समाधान-शीलोंके ईशको शीलेश कहते हैं । उसका भाव शैलेश्य है । 'समस्त गुण और शीलोंके एकाधिपतिपनेकी प्राप्ति' यह इसका भाव है । शंका -- यदि ऐसा है तो इस विशेषणका आरम्भ नहीं करना चाहिये, क्योंकि भगवान् अर्हन्त परमेष्ठी के सयोगकेवली अवस्था में ही सकल गुणों और शीलोंके अधिपतिपनेको अविकलरूपसे प्राप्त करके आत्मलाभ किया है, अन्यथा उनके अधूरे गुण और शोलपनेके होनेपर उनमें हम लोगोंके समान परमेष्ठिपना नहीं बन सकता है ? समाधान - यह कहना सत्य है, क्योंकि आत्मस्वरूप समस्त गुणों के समूहको प्राप्त करनेवाले और निष्कलंक ऐसे सयोगिकेवली भगवान् हैं, अतः परम उपेक्षा लक्षण यथाख्यात विहारशुद्धि संयमकी पराकाष्ठापर आरूढ़ हुए तथा समस्त गुणों और शीलोंको वहन करनेवाले उनके पूरी तरहसे स्वरूप ईक्षण- अवलोकनका आविर्भाव हुआ है ऐसा स्वीकार किया जाता है। किन्तु उनमें योगके निमित्तसे होनेवाले आस्रवमात्रके सत्त्वकी अपेक्षा पूरा संवर और समस्त कर्मोंको निर्जरारूप फल नहीं उत्पन्न हुआ है । परन्तु अयोगिकेवली भगवान्में पूरी तरहसे आस्रवद्वारके रुक जानेपर प्रतिपक्ष के बिना स्वरूपसे आत्मलाभ की प्राप्ति स्फुरायमान हो जाती है। इस प्रकार इस अभिप्रायसे उनमें (अयोगिकेवली भगवान् में) शीलेशपना स्वीकार किया गया है, इसलिये कोई दोषका अवसर नहीं है । यहाँ आयोगिकेवली गुणस्थानके स्वरूपका निरूपण करते हुए गाथासूत्र कहते हैं १. आ० प्रतौ शैलेश्य नाम इति पाठः ।

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